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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
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अविकृतितत्त्व और उसको सांख्यमत मूल प्रकृति इस नाम से पहचानते है। इस मूलप्रकृति का कोई कारण माने तो अनवस्थादोष आयेगा और इस मूलप्रकृति का कोई विकार नहीं है, इसलिए उसको अविकृति कही है। परंतु कुछ ऐसे तत्त्व भी है कि, जो किसीको परिणमित करे और स्वयं भी फिर किसी का परिणाम हो । उनको प्रकृतिविकृति कहा जाता है।
जब कि, कुछ तत्त्व केवल विकार ही हो, उनको विकार कहा जाता है। और एक तत्त्व ऐसा भी है कि किसी का परिणाम भी नहीं है और खुद में किसीको परिणमित होने भी नहीं देता है।
पच्चीस प्रमेय पदार्थो का नामोल्लेख करके बाद में उन्हें जानने के लिए प्रमाण की आवश्यकता है। अतः प्रत्यक्ष आदि तीन प्रमाणो का नामोल्लेख किया जाता है।दृष्टमनुमानमाप्तवचनं सर्वप्रमाणसिद्धत्वात् । त्रिविधं प्रमाणमिष्टं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि ॥४॥
• प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द (आप्तवचन), ये तीन प्रकार के इष्टप्रमाण है। क्योंकि, उसमें (अन्य) सर्वप्रमाण समाविष्ट हो जाते है। प्रमेय की सिद्धि प्रमाण से होती है। (कारिका - ४)
२५ तत्त्व प्रमेय है और उसकी सिद्धि उपरोक्त तीन प्रमाणो से होती है। जिसके द्वारा यथार्थज्ञान यानी कि प्रमा होती है वह प्रमाण । नैयायिको ने भी प्रमाण का इसी तरह से लक्षण दिया है।
प्रमा यानि कि ऐसे प्रकार कि चित्तवृत्ति कि, जो असन्दिग्ध हो, संशय-विपर्यय और स्मृति से मुक्त हो, संक्षेप में कहे तो चित्त को होनेवाला निर्धान्त यथार्थानुभव ही प्रमा है।
श्री वाचस्पति मिश्र केवल चित्तवृत्ति के पास अटकते नहीं है। परन्तु वे आगे कहते है कि, चित्तवृत्ति द्वारा पुरुष को जो ज्ञान (बोध) होता है, उसका नाम प्रमा है। प्रथम दृष्टि से यह सच भी लगेगा। क्योंकि, घडा आंख के द्वारा चित्त पर चाहे अपनी छाया गिराये, परन्तु अनुभव तो "मैं घडे के ज्ञानवाला हुआ" ऐसा ही होता लगता है। ___ परन्तु यह बराबर नहीं है। सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष उदासीन है। वह अनुभवो से पर है। उसको प्रमाता भी नही कहा जा सकता । तो फिर यहां क्या समजना ? इसका खुलासा यह है कि चैतन्य ऐसे पुरुष का प्रतिबिंब चित्तवृत्ति में पडता है। परिणामस्वरुप चित्तवृत्ति वस्तु का आकार धारण करती है। और इसलिए इस प्रतिबिंब के कारण पुरुष अनुभव करता है, वैसा भ्रम होता है। दूसरी तरह से देखे तो अचेतनचित्तवृत्ति स्वयं कोई अनुभव कर सकती नहीं है। इसलिए चैतन्य के प्रतिबिंब द्वारा ही उसका व्यापार संभव हुआ है।
प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टं त्रिविधमनुमानमाख्यातम् । तल्लिङ्गलिङ्गिपूर्वकम् आप्तश्रुतिराप्तवचनं तु ॥५॥
इन्द्रिय से होता प्रत्येक विषय का निश्चय वह प्रत्यक्षप्रमाण है। अनुमान तीन प्रकार का है। और वह लिंग (हेतु) और लिंगी (साध्य) के संबंध पर आधारित है तथा श्रद्धेय श्रुति वह शब्दप्रमाण है। (कारिका - ५) इसके विषय में विशेष आगे बताया गया है। इसलिए यहां बताया नहीं है।
अब कारिकाकार प्रमाण द्वारा सांख्योक्त प्रमेय-पदार्थो की सत्ता की सिद्धि किस-किस प्रमाण से होती है, इसका प्रतिपादन करते है -
सामान्यतस्तु दृष्टादतीन्द्रियाणां प्रतीतिरनुमानात् । तस्मादपि चासिद्धं परोक्षमाप्तागमात् सिद्धम् ॥६॥
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