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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २५, नैयायिक दर्शन
टीकाका भावानुवाद :
यहाँ “अयं किं?" में "किं" शब्द अनेक अर्थ में इस्तेमाल होता है। क्षेप, प्रश्न, निवारण, अपलाप, अनुनय, अवज्ञा करने में तथा वितर्क में "किं" शब्द का प्रयोग होता है। वह अब क्रमशः देखे, (१) क्षेप में : “किं सखा योऽभिद्रुह्यति ?" जो द्रोह करता है, वह क्या मित्र है ? (२) प्रश्न में : “किं ते प्रियम्" तुम्हारा प्रिय क्या है ? (३) निवारण में : "किं ते रुदितेन ?" तुम्हारे रोने से क्या? अर्थात् तुम्हारा रोना बंद करो। (४) अपलाप में : "किं तेऽहं धारयामि?" तेरा में क्या धारण करुं? (अर्थात् कुछ नहीं।) (५) अनुनय में (विनय में) : “किं तेऽहं प्रियं करोमि ?" तुम्हारा मैं क्या प्रिय करूं ? (६) अवज्ञा में : "कस्त्वामुल्लापयते" तुमको कौन डांटे? (डांट दे ?) (७) वितर्क में : “किमिदं दूर दृष्यते ?" दूर यह क्या दिखाई देता है ? ___ इस सूत्र में संशय का सामान्य लक्षण और उसके पाँच कारण बताये है। न्यायसूत्र के भाष्यकार के मत अनुसार इस सूत्रो के भाग नीचे बताये अनुसार है। (१) समानधर्मोपपत्तेर्विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः ।
स्थाणु और पुरुष के जो समानधर्म (साधारण धर्म) ऊंचाई और चौडाई पहले देखा था, वे पूरोवर्ति पदार्थ में देखने के बाद वे दोनो में (स्थाणु और पुरुष में) रहे हुए धर्म (हाथ, पग तथा कोटरादि) दूरत्वादि के कारण देख नहीं सकने की वजह से तथा उस विशेषधर्म को जानने की इच्छा चालू रहने से दृष्टा को यह स्थाणु होगा या पुरुष? ऐसा संशय होता है। सामान्यधर्म देखने से और विशेषधर्म की स्मृत्ति होने से उत्पन्न होनेवाला विमर्श साधारण धर्मजन्य संशय कहा जाता है। (२) अनेकधर्मोपपत्तेर्विशेषापेक्षा विमर्शः संशयः ।
यहाँ अनेकधर्म अर्थात् असाधारणधर्म । पृथ्वी नौ द्रव्य में से एक है। पृथ्वी में रहे हुए गंधवत्त्व धर्म असाधारण धर्म है। क्योंकि समानजातीय (द्रव्यत्व जातिवाले) जल-द्रव्यो में नहीं है । उपरांत असमानजातीय (गुणत्वादिजातिवाले) गुण आदि में भी नहीं है। इसलिए सजातीय और विजातीय से व्यावृत्त गंधवत्त्व धर्म पृथ्वी में ही है। ___ अब इस धर्म के कारण पृथ्वी को द्रव्य मानना या गुणादि में से कोई पदार्थ मानना, ऐसा संशय होता है। अथवा गंधवत्त्वधर्म द्रव्य का होगा या गुण का होगा या कर्म का होगा? इस प्रकार अनेक पदार्थ संबंधित धर्म होने से, उसके बारे में शंका होने से पृथ्वी द्रव्य होगी, गुण होगी या कर्म होगी? ऐसा संशय उत्पन्न होता है। ___ इस संशय को टालने के लिए विशेष को जानने की अपेक्षा है। वह इस अनुसार है -- गंधवत्त्व अर्थात् गंध और गंध चौबीस गुणो में से एक है। इसलिए गंधरुप गुण का आधार पृथ्वी द्रव्य ही है। गुण या कर्म नहीं, पृथ्वी गंधगुण का आधार इस तरह से है-गंध विशेषगुण होने से दिशा, काल और मन में नहीं है। क्योंकि ये तीनो में विशेषगुण नहीं होते है। गंध बाह्येन्द्रिय से ही ग्राह्य है। इसलिए आत्मा का गुण भी नहीं है। क्योंकि आत्मा के गुण बाह्येन्द्रियग्राह्य नहीं है। आकाश का कोई भी विशेषगुण घ्राणेन्द्रियग्राह्य नहीं है। इसलिए गंध आकाश का भी गुण नहीं है। तेज और जल के कोई भी विशेषगुण घ्राणेन्द्रियग्राह्य नहीं है। इसलिए गंध उन दोनो का भी गुण नहीं है। बाकी रहा हुआ पृथ्वी द्रव्य ही गंध गुण का आधार है।
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