________________
षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
२७५
पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा मन, ये ११ करण दर्शन-श्रवणादि विशेष से रहित और अभिमान मात्र धर्मवाले अहंकार रुप अविशेष के विकार है।
उसमें सत्त्वप्रधान अहंकार के विकाररुप ज्ञानेन्द्रिय है। रजः प्रधान अहंकार के विकाररुप यह दस इन्द्रियो के अर्थ को विषय करनेवाला मन है। ___ इस प्रकार ये १६ तत्त्व विकार है, यह सिद्ध होता है। इतना ही नहीं, ये १६ तत्त्वो में से कोई भी, अन्य तत्त्व का उपादानकारण नहीं है। इसलिए ये १६ तत्त्व केवल विकाररुप है। __ पृथ्वी आदि पंचभूत जगत के स्थूलपदार्थो के उपादानकारण है। यह बात सच है, फिर भी पृथिव्यादि अणु से जगत के स्थूलपदार्थ अधिकसूक्ष्म नहीं गिने जाते । इसलिए वे पदार्थ भिन्न तत्त्वरुप नहीं है। इसलिए ये तत्त्व अन्य तत्त्व के उपादानकारण नहीं है। इसलिए वे केवल विकार है और इसलिए वे तत्त्व विशेष है।
विशेष का अर्थ यह है कि शान्त, घोर और मूढ विशेषोवाले केवल विकाररुप पदार्थ. ऐसा होने से पाँच तन्मात्रा, जो शब्द-स्पर्शादि विशेषवाली है तथा तामस् अहंकार के विकाररुप है और फिर भी पृथ्वीआदि पंचभूतरुप भिन्न तत्त्व का उपादान कारण है । इसलिए केवल विकाररुप नहीं है। इसलिए उसका समावेश विशेष में नहीं होता है। सांख्यकारिका में कहा है कि - "षोडशस्तु विकारः" इस वचन से १६ पदार्थ ही विकाररुप कहे गये है। श्री गर्भोपनिषद् में भी "अष्टौ प्रकृतयः षोडशः विकाराः"-आठ प्रकृति है और १६ विकार है ऐसा कहा गया है।
• अविशेष : अविशेष यानी शांत, घोर और मूढरुप विशेष के रहित लिंगमात्र और अलिंग से भिन्न सत्त्वादिके कार्यरुप पदार्थ । ये पदार्थ है पांच तन्मात्रा और अहंकार ।
यहाँ अहंकार में श्रवण-दर्शनादि से रहित अभिमानमात्र धर्मवाले सात्त्विक, राजस् और तामस् अणुओ का ग्रहण होता है। वे अणु ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, मन तथा पाँच तन्मात्रा के उपादानकारणरुप है और स्वयं लिंगमात्र पर्व के विकाररुप है। ___ इस तरह होने से वे अणु शांत, घोर, मूढरुप विशेष, जो केवल विकारो में ही उद्भूत हुए होते है, उससे रहित है। लिंगमात्र और अलिंग से ज्यादा स्थूल होने से भिन्नतत्त्वरुप है तथा सत्त्वादि के कार्य है। इसलिए वे सत्त्वादि मूल प्रकृति के अविशेषपर्व में आते है। ___ शब्द तन्मात्रा यानी शान्तादि विशेष से रहित, शब्दमात्र धर्मवाला, आकाश के अणु का उपादानकारणरुप द्रव्या स्पर्शतन्मात्रा यानी शान्तादि विशेष से रहित, शब्द और स्पर्श ये दो धर्मवाला, वायु के अणु का उपादानकारणरुप द्रव्य । रुपतन्मात्रा यानी शान्तादि विशेष से रहित, शब्द-स्पर्श और रुप ये तीन धर्मवाला, तैजस अणु का उपादानकारणरुप द्रव्य । रसतन्मात्रा यानी शान्तादि विशेष से रहित, शब्द-स्पर्श-रुप और रस ये चार धर्मवाला जल के उपादानकारणरुप द्रव्य । गंधतन्मात्रा यानी शान्तादि विशेष से रहित, शब्द-स्पर्श-रुप-रस और गन्ध ये पांच धर्मवााला, पृथ्वी के उपादानकारणरुप द्रव्य। __ ये पाँच तन्मात्रा कही जाती है। ये पाँचो तन्मात्राएं सभी एकसमान तरीके से तामस् अहंकार के कार्यरुप है। वैसे ही ये तन्मात्रा आकाशादि पाँच भूतरुप भिन्न तत्त्वो के उपादानकारणरुप है। इसलिए यह तन्मात्रा केवल विकाररुप नहीं है और इसलिए शान्तादि से रहित है तथा लिंगमात्र और अलिंग से भिन्न है। इसलिए अविशेष है। इस प्रकार पाँच तन्मात्रा और अहंकार अविशेष है।
(३) लिंगमात्र : लिंगमात्र यानी व्यंजकमात्र अर्थात् जो संपूर्ण जगत को अभिव्यक्त हुआ बताता है तथा जिसमें
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org