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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ४१, सांख्यदर्शन
होने से क्रिया कर सकता है। श्रीवाचस्पति मिश्र ने कहा है कि.... सक्रियं = परिस्पन्दवत्" और परिस्पन्द = प्रवेशनिःसरणादिरुपा क्रिया - सामान्य तौर पे आने – जाने की क्रिया को परिस्पन्द कहा जाता है। यहाँ बुद्धि इत्यादिक व्यक्त तत्त्व एक देह को छोडकर अन्यदेह धारण करते है। इसलिए परिस्पन्दवाले है। और इसलिए सक्रिय है। इस विषय में सांख्याचार्यो में मतभेद है। श्री जयमंगला की मान्यता के अनुसार क्रिया अर्थात् संसरण । वह प्रधान संसार का सर्जन करती है। फिर भी सर्वव्यापी होने से निष्क्रिय है, ऐसा मानते है। श्रीविज्ञानभिक्षु इस मत का स्वीकार नहीं करते है। सृष्टि का सर्जन प्रकृति में होते हुए क्षोभ के कारण ही होता है और इसलिए उतने अंश से प्रकृति भी सक्रिय ही है। इसलिए क्रिया का अर्थ अध्यवसायादिरुप करना । किसी निश्चित कार्य को उत्पन्न करने के प्रयत्न को ही क्रिया मानना । प्रकृति तो सभी कार्यो का सामान्य कारण होने से सक्रिय नहीं रहेगी। परंतु श्रीबालाराम इस मत का विरोध करते हुए कहते है कि, गमनागमन की क्रिया प्रधानमें नहीं है। इसलिए ही सक्रिय नहीं है, ऐसा मानना समुचित है। उपर व्याख्या में श्री ईश्वरकृत सांख्यकारिका के आधार पर वर्णन किया गया है।)
(५) व्यक्त अनेक है : क्योंकि वह २३ भेद स्वरुप है। (इस विषय में श्री गौडपाद कहते है कि... व्यक्त में बुद्धि, अहंकार, पाँच तन्मात्रा, ग्यारह इन्द्रियां और पाँचभूत समाविष्ट होते है। इसलिए वह अनेक है।
श्रीवाचस्पतिमिश्र इस विषय में कहते है कि "अनेकम् - प्रतिपुरुषं बुद्धयादिनां भेदात्"-प्रत्येक पुरुष के लिए अलग अलग बुद्धि इत्यादिक होने से वह अनेक है। श्री उदासीन बलराम उसको ज्यादा स्पष्ट करते हुए कहते है कि, अनेकत्वं सजातीयत्वभेदम्" अर्थात् ये सब पदार्थो को अपना अपना वर्ग है। अर्थात् अनेक है। वास्तव में तो जगत में जो वस्तु की विविधता दिखाई देती है, वह इस व्यक्त को ही आभारी है और उसका सूचन अनेक में से ग्रहण किया जा सकता है।)
(६) व्यक्त आश्रित है-व्यक्त आश्रितभोग में निमित्त होने के कारण आत्मा को उपकारक होने से प्रधानरुप कारण को आधीन है।
(कहने का मतलब यह है कि श्री वाचस्पति मिश्र और श्री गौडपाद दोनो के मतानुसार व्यक्त अपने कारण का आश्रित है। क्योंकि कार्य हमेशा कारण के सहारे रहता है। इस तरह से बुद्धि, प्रधान के सहारे है। अहंकार बुद्धि के सहारे रहा हुआ है । इन्द्रिय और तन्मात्राएं अहंकार के सहारे रही हुई है । तथा पंचमहाभूत तन्मात्रा के सहारे रहे हुआ है। यद्यपि इस तरह अर्थ करने से 'हेतुमत्' और 'आश्रित' के बीच खास भेद रहता नहीं है। वह भेद समजाने का प्रयास करते हुए श्री जयमंगला कहते है कि, "हेतुमत्" में कार्य को उत्पत्ति का सूचन है। जब कि "आश्रित" में उसके आधार का सूचन है। श्री चन्द्रिका 'आश्रितम्' अर्थात् वृत्तिमत् ऐसा सूचित करते है। और श्रीविज्ञानभिक्षु उसका अर्थ 'अवयवो में आश्रित' ऐसा करते है।
(७) व्यक्त कारण में लीन होनेवाला है : अर्थात् जो जिससे उत्पन्न होता है वह उसमें लय = क्षय को प्राप्त करता है, उसे लिंग कहा जाता है। वह लिंगवाला व्यक्त है। वहा भूत तन्मात्रा में लीन होते है। तन्मात्रा,
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