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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
सांख्यदर्शन का विशेषार्थ : छ: शास्त्रो में सांख्यशास्त्र एक है। उसके रचयिता महर्षि कपिल है। सांख्य शब्द का अर्थ होता है ज्ञान । अर्थात् प्रकृति, पुरुष और उसके भेद का जो यथार्थज्ञान उसका नाम सांख्य। और वैसे ज्ञान का उपाय बतानेवाला जो शास्त्र है, उसका नाम सांख्यशास्त्र कहा जाता है अथवा सांख्यदर्शन कहा जाता है। सांख्यशास्त्र के प्रतिपाद्य विषय पुराण, करण और वैदक आदि ग्रंथो में दीखाई देते है। इस शास्त्र में सर्व जगत का मूल उपादानकारण प्रकृति माना गया है। सत्त्व, रजस् और तमस्, ये तीनगुणो की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। भोगार्थी और अज्ञानी जीवात्मा को भोग और ज्ञान होता है। वह हेतु से प्रकृति में विक्षोभ हुआ । इसलिए विक्षुब्धप्रकृति में से एक पदार्थ बना उसका नाम महत्, महत् में से अहंकार, अहंकार में से पांच तन्मात्रा और ग्यारह इन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रा में से पाँच महाभूत, पृथ्वी, पानी, वायु, तेज, आकाश । इस अनुसार से चौबीस जड तत्त्व और पच्चीसवां पुरुष तत्त्व, कि जो चेतन है। प्रकृति विकारिणी है और पुरुष अविकारी है। अर्थात् पुरुष कोई चेतनान्तर या विकारान्तर का उपादान कारण नहीं है। २५ तत्त्व
पुरुष (१) मूल प्रकृति ( २४)
महत् (बुद्धि)
अहंकार (सात्त्विक, राजस्, तामस्) तमः प्रधान सत्त्वः प्रधान
रजः प्रधान (१) पाच तन्मात्रा
(२) पाच ज्ञानेन्द्रिय __ (३) पाँच कर्मेन्द्रिय (४) मन रुप रस गंध स्पर्श शब्द आंख कान नाक जीह्वा त्वक् वाक् पाणि पाद पायु( गुदा ) उपस्थ( लिंग)
(पंचमहाभूत) (पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश)
पाँच महाभूतो में तमोगुण ज्यादा है । बुद्धि में सत्त्वगुण ज्यादा है। पाँच ज्ञानेन्द्रिय में सत्त्वगुण ज्यादा है। कर्मेन्द्रिय में रजोगुण ज्यादा है। सत्त्व और रजस् ये दोनो समान अंश से जिसमें हो और तमस् जिसमें गौण होता है ऐसे सत्त्व-रजस् उभयप्रधान अहंकार का अणु, मन अथवा अंतःकरण रुप में परिणाम को प्राप्त करता है।
पुरुष दो प्रकार के है। एक तो अनादिकर्म के संबंध के कारण अलग-अलग शरीर द्वारा जीवन का उपभोग करता है। इसलिए जीव ऐसी संज्ञा धारण करता है । जीवात्मा एक नहीं असंख्य है । दूसरा ईश्वर है। वह एक ही है। ईश्वर प्रकृति के सर्व सरुप और विरुप परिणाम को अपने सान्निध्य से सतत गतिमान रखता है। इसलिए शास्त्र में लिखा है कि, “ईश्वरसिद्धेः" अर्थात् जो प्रत्यक्षादिप्रमाण से हम घटपटादि स्थूल और सूक्ष्म पदार्थो को जान सकते है, उन प्रमाणो की गति ईश्वर में नहीं है। इसलिए ईश्वर का अभाव नहीं है । परन्तु उसको जानने की सामग्री अलौकिक है। इस कारण से कुछ लोग भ्रम रखते है कि सांख्यशास्त्र निरीश्वरवादि है । समाधि तथा सुषुप्ति में जीवात्मा के स्वरुप की ब्रह्म के साथ तुलना की गई है । ईश्वर को सर्वकर्ता और सर्वज्ञाता भी माना है। परन्तु सांख्यकारिकाकार श्री ईश्वरकृष्ण और सांख्यतत्त्वकौमुदिकार श्री वाचस्पति मिश्र आदि
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