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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ४१, सांख्यदर्शन
इसलिए अकर्ता है। क्योंकि आत्मा में तृण मात्र को तोडने का भी सामर्थ्य नहीं है । परन्तु प्रकृति ही कर्ता है। क्योंकि प्रकृति प्रवृत्ति के स्वभाववाली है। आत्मा सत्त्वादि तीन गुण से रहित होने से विगुण है। सत्त्वादि तीन गुण प्रकृति के धर्म है । और आत्मा सत्त्वादि तीन गुण से रहित होने से विगुण है । सत्त्वादि तीन गुण प्रकृति के धर्म है और आत्मा में सत्त्वादि तीन गुणो का अभाव है । इसलिए आत्मा विगुण है ।
आत्मा भोक्ता है। अर्थात् अनुभव करनेवाला है। आत्मा विषयो का साक्षात् भोक्ता नहीं है । परन्तु प्रकृति विकाररुप बुद्धि दर्पण में सुख-दुःखादि का प्रतिबिम्ब पडता है और वह बुद्धिदर्पण दोनो ओर से पारदर्शी है। इसलिए उसकी दोनो तरफ में प्रतिबिंब पडता है। इसलिए बुद्धिदर्पण में प्रतिबिंबित सुख-दुःखादि की छाया अत्यंत निर्मल पुरुष में पडती है। इस प्रकार पुरुष के स्वच्छ स्वरुप में बुद्धि - प्रतिबिंबित सुख-दु:ख की छाया पडना वही पुरुष का भोग है। ऐसे ही भोग के कारण पुरुष भोक्ता कहा जाता है।
"बुद्धि द्वारा अध्यवसित अर्थो का पुरुष अनुभव करता है ।" ऐसा पूर्वाचार्यो का कथन है । जैसे जपाकुसुम के सन्निधान से स्फटिक में रक्त (लाल) आदि रंगो का व्यपदेश किया जाता है। वैसे ही प्रकृति के संसर्ग के कारण स्वच्छ पुरुष में भी सुख - दुःखादि के भोक्तृत्त्व का व्यपदेश किया जाता है । वादमहार्णव का भी मत है कि.. बुद्धिरुपी दर्पण में संक्रान्त हुए अर्थ के प्रतिबिम्ब का स्वच्छ पुरुषरुप द्वितीय दर्पण में अध्यारोह होना, वही सुख-दुःखादि का भोग है और वैसा प्रतिबिम्ब पडना वही पुरुष का भोक्तृत्व है। इसलिए प्रतिबिम्ब के प्रति अध्यारोह के सिवा पुरुष का दूसरा कोई भोग नहीं है। इसलिए आत्मा में विकार की भी आपत्ति नहीं है ।
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तथा चासुरि:-“विविक्तेदृक्परिणतौ बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते । प्रतिबम्बोदयः स्वच्छे यथा चन्द्रमसोऽम्भसि ।।१।।” व (विन्ध्यवासी त्वेवं भोगमाचष्टे-“पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमचेतनम् मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः (धेः ) स्फटिकं यथा ।। २ ।। ” इति तथा नित्या या चिचेतना तयाभ्युपेतः, एतेन पुरुषस्य चैतन्यमेव स्वरूपं, न तु ज्ञानं, ज्ञानस्य बुद्धिधर्मत्वादित्यावेदितं द्रष्टव्यम् । केवलमात्मा स्वं बुद्धेरव्यतिरिक्तमभिमन्यते, सुखदुःखादयश्च विषया इन्द्रियद्वारेण बुद्धौ संक्रामन्ति, बुद्धिश्चोभयमुखदर्पणाकारा, ततस्तस्यां चैतन्यशक्तिः प्रतिबिम्बते, ततः सुख्यहं दुःख्यहं ज्ञाताहमित्युपचर्यते । आह च पतञ्जलि: D-14 - “ शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति, तमनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रतिभासते” [योग भा० २ / २० ] इति । “बुद्धिश्चाचेतनापि चिच्छक्तिसन्निधानाच्चेत-नावतीवावभासते” इति 1 पुमानित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनम्, तेनात्मानेकोऽ ऽभ्युपगन्तव्यः, जन्ममरणकरणानां नियमदर्शनाद्धर्मादिप्रवृत्तिनानात्वाच्च । ते च सर्वेऽप्यात्मानः सर्वगता नित्याश्चावसेयाः । उक्तं च-“अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने । । १ । ।” इति । । ४१ ।।
(D-14) - तु० पा० प्र० प० ।
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