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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
हुए ब्रह्मा द्वारा जो माताएँ उत्पन्न होती है, वे माताओ में से यह जगत उत्पन्न होता है। पौराणिको में कुछ ऐसा मानते है कि (ब्रह्माने जगत् नया नही बनाया, परन्तु) क्षत्रियादि वर्णविभाग रहित था, उनको ब्रह्माने क्षत्रियादि वर्णविभागवाला बनाया । कुछ लोग जगतको १३) कालकृत मानते है। दूसरे कुछ लोग जगत को पृथ्व्यादि अष्टमूर्ति स्वरुप(१४) ईश्वर से बना हुआ मानते है। दूसरे कुछ लोग ब्रह्मा के मुख में से (१५)ब्राह्मणादि जगत उत्पन्न हुआ मानते है । (१६)सांख्यो जगत को प्रकृति से उत्पन्न हुआ मानते है । (१)बौद्धो जगत को
है-) देवो की माता अदिति, असुरो की माता दिति, मनुष्यो की माता मनुत्रषि, सर्वजाति के पक्षीओ की माता विनता, सर्पो की माता कद्रु, नागजात के सर्पो की माता सुलसा, पशुओ की माता सुरभि और सर्व धान्यादिक बीजो की माता पृथ्वी । (इस प्रकार माताओ में से उत्पन्न जो देवादि समूह, उसका जो विस्तार अर्थात् यह जगत, ऐसा
पौराणिको का मानना है।) (१३) लोकतत्त्वनिर्णय में यह बात कही है।
वैष्णवं केचिदिच्छन्ति केचित् कालकृतं जगत् । ईश्वरप्रेरितं केचित् केचिद्, ब्रह्माविनिर्मित ॥४७॥ प्रभवस्तासां विस्तरमुपगतः केचिदेवमिच्छन्ति । केचिद् वदन्त्यवर्णं, सृष्टं वर्णादिभिस्तेन ॥६०॥ काल:
सृजति भूतानि, काल संहरते प्रजाः । काल सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥६१॥ (१४) ईश्वरवादियों का कहना है कि.... सूक्ष्मोऽचिंत्यो विकरणगणः सर्ववित् सर्वकर्ता, योगाभ्यासानिर्मलधिया,
योगिना ध्यानगम्यः । चन्द्रार्काग्निक्षितिजलमरुत्दीक्षिताकाशमूर्तिर्येयो नित्यं शमसुखरतैरिश्वरः सिद्धकामैः ॥६४॥ (इन्द्रियो से अगोचर) सूक्ष्म, अचिन्त्य, इन्द्रियरहित, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, योग के अभ्यास से निर्मल बुद्धिवाले योगी के द्वारा ध्यानमें जानने योग्य, तथा चन्द्र, सूर्य, पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय, यजमान और
आकाश ये आठ स्वरुपवाले ईश्वर से जगत बना हुआ है। (१५) लोकतत्त्वनिर्णय में कहा है कि.. आसीदितं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणं । अप्रतय॑मविज्ञेयं प्रसुप्तमिवं सर्वतः
॥६५॥ तत स्वयंभूर्भगवान्नव्यक्तो व्यंजयन्निदं । महाभूतादिवृत्तौजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः ॥६६॥ लोकानां स च वृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः । ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शुद्रं च विन्यवर्त्तयत् ॥६७॥ - पहेले यह जगत अंधकारमय, न जाना जा सके ऐसा, लक्षणरहित (विचारमें) न आ सके ऐसा, नहि जानने योग्य और सोता हो, वैसे चारो और लगता था। उसके बाद किसी समय अव्यक्त स्वयंभू भगवान (ब्रह्मा) कि जिसका तेज महाभूत इत्यादि से ढका हुआ था, वह भगवान अंधकार का नाश करके उत्पन्न हुआ, (उसके बाद) लोको की वृद्धि करने के लिये (अर्थात् मनुष्यसृष्टि बनाने के लिये) अपने मुख में से ब्राह्मणो, भुजा में से क्षत्रियो, उरु (जंघा) में से वैश्यो और पैर
में से शुद्रो को उत्पन्न किया। (१६) सांख्यो की मान्यता : पंचविधमहाभूतं, नानाविधदेहानाम् संस्थानं अव्यक्तमुत्थानं जगदेतत् केचिदिच्छन्ति ।
लो.नि.६८॥ (१७) बौद्धो की मान्यता : विज्ञप्तिमात्रमेवैतत्, असमर्थाऽवभासनात् यथा । तैमरिकस्येह कोशकीटादिदर्शनम् ॥७४॥ क्रोधशोकमदोन्मादकामदोषाधुपद्रुताः । अभूतानि च पश्यन्ति, पुरतोऽवस्थितानि ॥७५॥
जैसे आंख में अंधेरा आने से भ्रम से कोशीटा (रेशम) का कीडा (कीडे की एक जाति विशेष) इत्यादि के दर्शन होते है वैसे असमर्थ ज्ञान से (जगत को जानने योग्य समर्थज्ञान नहि होने से) यह जगत विज्ञानमात्र रुप में (वह पदार्थ नहि होने पर भी वह पदार्थ देखता हूं, उस रुप में) दिखता है। (परंतु वास्तविक कुछ नहीं है ।) क्योंकि क्रोध, शोक, मद, उन्माद, काम इत्यादि दोषो से पराभव पाये हुओ अर्थात् भ्रमवाले जीव अभूतो को (अवस्तुओको)
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