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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
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मोक्ष, कर्म तथा क्लेश के क्षय से होता है। कर्म और क्लेशो की सत्ता संकल्पो के कारण है। शुभ संकल्प से राग का, अशुभ संकल्प से द्वेष का और विपर्यास के संकल्प से मोह का उदय होता है और संकल्प का कारण प्रपंच है। प्रपंच का अर्थ है ज्ञान-ज्ञेय, वाच्य-वाचक, घट-पट, स्त्री-पुरुष, लाभालाभ, सुख-दुःख आदि विचार। उस प्रपंच का निरोध शून्यता-सब नैरात्म्यज्ञान में है। अतः शून्यता मोक्षोपयोगिनी है। (मोक्ष के लिए उपयोगी है)
वस्तु की उपलब्धि (प्राप्ति) होने से प्रपञ्च का जन्म होता है और संकल्पो के द्वारा वह कर्म-क्लेशो को उत्पन्न करता है। जिससे प्राणी संसार के आवागमन में (आने-जाने में) भटकता रहता है और वस्तु की प्राप्ति नहीं होने से प्रपंच का जन्म नहीं होता। उससे संकल्पो के द्वारा क्लेशादि उत्पन्न नहीं होते । इसलिए जीव को इस प्रकार से शून्यता के ज्ञान से प्रपंच का जन्म रोकना चाहिए । इसलिये दूसरी कोई अनर्थ की परंपरा नहीं चलती । इसलिये सर्वप्रपंचो की निवृत्ति उत्पन्न होने के कारण शून्यता ही निर्वाण है और निर्वाण के बाद भी कुछ भी शेष नहीं रहता इसलिये निर्वाण असत्य है।
नागार्जुनने इस कारण से शून्यता को आध्यात्मिकता के लिये विशेष महत्व प्रदान किया है। कर्मक्लेशक्षयान्मोक्षः कर्मक्लेशा विकल्पतः । ते प्रपञ्चात् प्रपञ्चस्तु शून्यतायां निरुद्ध्यते ॥१८।९ मा.का ॥ शून्यता का लक्षण : नागार्जुन ने शून्य का लक्षण एक कारिका द्वारा बताया है।
अपरप्रत्ययं शान्तं प्रपञ्चैरप्रपञ्चितम् । निर्विकल्पमनानार्थमेतत् तत्त्वस्य लक्षणम् ॥मा.का. १८॥९॥ शून्य का लक्षण इस प्रकार से है। (१) वह (शून्य) अपरप्रत्यय है। अर्थात् एक के द्वारा दूसरे को उसका उपदेश नहीं दिया जा सकता। प्रत्येक प्राणी को इस तत्त्व की अनुभूति स्वयं अपने आप करनी चाहिए । (प्रत्यात्मवेद्य). आर्यो के उपदेश के श्रवण से इस (शन्य) तत्त्व का ज्ञान कभी भी नहीं हो सकता। क्योंकि, आर्यो का तत्त्वप्रतिपादन 'समारोप' द्वारा ही होता
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(२) वह (शून्य) शान्त है। अर्थात् स्वभावरहित है।
(३) वह प्रपंचो के द्वारा कभी भी प्रपंचित नहीं होता । यहाँ प्रपंच का अर्थ शब्द है । क्योंकि वह अर्थ को प्रपंचित-प्रकट करता है। शन्य के अर्थ का प्रतिपादन किसी भी शब्द के द्वारा नहीं हो सकता। इसलिये वह 'अशब्द' तथा 'अनक्षर' तत्त्व कहा जाता है।
(४) वह (शून्य) निर्विकल्पक है । विकल्पका अर्थ है - चित्त का चलना अर्थात् चित्त का व्यापार (चित्तप्रचार) । शून्यता चित्त व्यापार के अन्तर्गत नहीं आती। चित्त इस तत्त्व का विचार नहीं कर सकता।
(५) शून्य अनानार्थ है : नाना (अनेक) अर्थो से विरहित है। जिसके विषय में धर्मो की उत्पत्ति मानी जाती है, वह वस्तु नानार्थ होती है। वस्तुतः सर्वधर्मो का उत्पाद नहीं होता। इसलिए यह (शून्य) तत्त्व नानार्थरहित है।
शून्य का इस प्रकार का स्वभाव है - सर्व प्रपंचो की निवृत्ति । वस्तुतः वह भावपदार्थ है, अभाव नहीं है। जगत के मूल में विद्यमान होनेवाला यह भावपदार्थ है। शून्यता ही प्रतीत्य समुत्पाद है।
यः प्रत्ययसमुत्पादः शून्यतां तां प्रचक्ष्महे । सा प्रज्ञप्तिरुपादाय प्रतिपत् सैव मध्यमा ॥ शून्यवाद की सिद्धि : शून्यवाद के निराकरण के निमित्तरुप पूर्वपक्ष की अनेक युक्तियां है, उसका ही विशेष खण्डन नागार्जुन ने अपने विग्रह-व्यावर्तिनी ग्रंथ में विस्तार से किया है । यहाँ सारांश में शून्यवाद की सिद्धि किस प्रकार से करते है वह देखे।
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