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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इसलिए वस्तुओ का सामान्य तथा विशेषलक्षण (जिससे वस्तु का स्वरुप बताया जाता है
वह लक्षण) नाममात्र (विज्ञप्तिमात्र) है। (१५) उपलम्भ शून्यता : भूत, वर्तमान, भविष्य, ये त्रिविध काल की कल्पना दिशा की कल्पना की भांति बिलकुल
निराधार है। मनुष्य अपने व्यवहार के लिए काल की कल्पना खडी करता है। काल ऐसा कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं
है कि जिसकी सत्ता स्वतंत्र प्रमाणो से सिद्ध की जा सके। (१६) अभाव-स्वभाव शून्यता : अनेक धर्मो के संयोग से जो वस्तु उत्पन्न होती है, उसका भी कोई अपना विशिष्ट
स्वरुप नहीं होता। क्योंकि, परस्पर सापेक्ष होने के कारण ऐसी वस्तु की स्वतंत्र सत्ता होती ही नहीं है। (१७) भाव शून्यता : पंचस्कन्ध के समुदाय को साधारणतया हम "आत्मा" नाम से पहचानते है। परन्तु वे पंचस्कन्ध
भी स्वरुप से हीन है। स्कन्ध शब्द का अर्थ है राशि या समुदाय । जो वस्तु समुदायात्मक होती है वह स्वतः सिद्ध नहीं होती । इसलिये वह (राशि) जगत के पदार्थो की किसी भी प्रकार से निमित्त नहीं बनती । स्कन्ध की सत्ता
का निषेध इस विभाग का तात्पर्य है। (१८) अभाव शून्यता : आकाश और दोनो प्रकार का निरोध (प्रतिसंख्या निरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध) स्वभावरहित
है। वह केवल संज्ञामात्र है। वह वस्तुतः सांसारिक सत्यता के अभावरुप होने से स्वयं सत्ताहीन है। (१९) स्वभाव शून्यता : साधारणतया हमारी जो धारणा है कि, प्रत्येक वस्तु का अपना (स्वतंत्ररुप से) स्वभाव
होता है। वह स्वभाव अलौकिक(प्रातिभ) ज्ञान या दर्शन के द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता । ज्ञान और दर्शन
वस्तु के यथार्थरुप के द्योतक होते है । सत्तारहित पदार्थ की अभिव्यक्ति वे कभी भी नहीं कर सकते है। (२०) परभाव शून्यता : वस्तु का परमार्थरुप नित्य वर्तमान रहता है। वह उत्पत्ति और विनाश की अपेक्षा नहीं रखते
हुए स्वतंत्ररुप से सदा (हमेशा) विद्यमान रहनेवाला है, उस स्वभाव को किसी बाह्य कारण (परभाव) के द्वारा
उत्पन्न हुआ मानना वह अत्यंत तर्कहीन है। ★ "सत्ता" के प्रश्न को लेकर बौद्ध दर्शन के चार संप्रदाय :
बौद्धदर्शन के चार संप्रदायो की सत्ता के विषय की मान्यता को प्रकट करता संग्रहश्लोक यह है -- अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणेष्यते, प्रत्यक्षेण न हि बाह्यवस्तुविस्तरः सौत्रान्तिकैराश्रितः । योगाचारमतानुगैरभिमता साकारबुद्धिः परा, मन्यन्ते बत मध्यमाः कृतधियः स्वच्छां परां संविदम् ॥१४५॥
भावार्थ : सत्ता की मीमांसा करनेवाले बौद्धदर्शन के चार संप्रदाय है। व्यवहार के आधार पर ही परमार्थ का निरुपण किया जाता है। स्थूलपदार्थो से सूक्ष्मपदार्थो की विवेचना की ओर जानेवालो में पहला मत उस दार्शनिको का यह है कि, जो बाह्य तथा अभ्यन्तर समस्त धर्मो के अस्तित्व का स्वीकार करते है।
जगत में बाह्य वस्तु का अपलाप किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता। जो वस्तु को लेकर हमारा जीवन है, उसी प्रकार से उसकी (बाह्यपदार्थ की) सत्यता स्वयं प्रकट करता है। इस तरह बाह्यार्थ को प्रत्यक्षरुप से सत्य माननेवाला वैभाषिक संप्रदाय है।
इससे दूसरे दार्शनिक आगे बढते है। उनका कहना है कि, बाह्यवस्तु का प्रत्यक्षज्ञान हमको नहीं हो सकता। यदि समग्र वस्तु क्षणिक है तो किसी भी वस्तु के स्वरुप का प्रत्यक्षज्ञान संभव नहीं है। प्रत्यक्ष होते ही पदार्थो का नील, पीत आदि चित्र चित्त के पट के उपर खींचे चले आते है। जिस प्रकार दर्पण में (आयने में) प्रतिबिंब
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