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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
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बात को बताया है : मया तु यत्प्रतीत्य बीजाख्यं कारणं भवति अंकुराख्यं कार्यं तच्चोभयमपि शान्तं स्वभावरहितं प्रतीत्यसमुत्पन्नम् ।
कार्य-कारण की कल्पना करना, वह तो बच्चो का खेल है। वस्तुस्थिति का परिचय रखनेवाली कोई भी व्यक्ति जगत को उत्पन्न नहीं मान सकती । वस्तुतः संसार की ही पूर्वाकोटि (कारणभाव) विद्यमान नहीं है। जगत के समस्त पदार्थो की यही दशा है। माध्यमिक कारिका में कहा है कि, पूर्वा न विद्यते कोटिः संसारस्य न केवलम् । सर्वेषामपि भावनां पूर्वाकोटि न विद्यते ॥११॥८॥
इसलिये हेतु प्रत्यय जनित पदार्थों को शून्यवादी आचार्यों ने स्वभावहीन (शान्त) माना है। परमार्थ सत्य : वस्तु का अकृत्रिम स्वरुप ही परमार्थ है। जिसके ज्ञान से संवृत्तिजन्य समस्तक्लेशो की प्राप्ति की जाती है। परमार्थ = धर्मनैरात्म्य अर्थात् सर्व धर्म (साधारणतया भूतो) की निःस्वभावता । उसके ही शून्यता, तथता (जैसा हो वैसा भाव), भतकोटि (पदार्थो का सत्यपर्यवसान) और धर्मधात (वस्तओ की समग्रता) पर्याय है । बोधिचर्या में पृ.३५४ में कहा है कि -
सर्वधर्माणां निःस्वभावता, शून्यता, तथता, भूतकोटिः धर्मधातुरिति पर्यायाः । सर्वस्य हि प्रतीत्यसमुत्पन्नस्य पदार्थस्य निःस्वभावता पारमार्थिक रुपम् ।
समस्त प्रतीत्यसमुत्पन्न पदार्थ की स्वभावहीनता ही पारमार्थिकरुप है। जगत के सर्वपदार्थ हेतु प्रत्यय से उत्पन्न होते है। इसलिये वे पदार्थो का कोई विशिष्टरुप नहीं है। वही निःस्वभावता अर्थात् शून्यता पारमार्थिकरुप है।
नागार्जुन के कथनानुसार निर्वाण ही परमार्थसत्य है। उसमें विषय-विषयी, कर्ता-कर्म की किसी प्रकार की विशेषता नहीं होती।
इसके लिये प्रज्ञाकरमतिने परमार्थसत्य को सर्वव्यवहारसमातिक्रान्त-अर्थात् सर्व व्यवहारो से अतीतनिर्विशेष, असमुत्पन्न, अनिरुद्ध, अभिधेय-अभिधान से रहित तथा ज्ञेय-ज्ञान से विगत बताई गई है। संवृत्ति का अर्थ है बुद्धि । बुद्धि द्वारा जो जो तथ्य ग्रहण होते है, वह समस्त व्यावहारिक (सांवृत्तिक) सत्य है।
परमार्थसत्य बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है। बुद्धि कोई विशेष को लक्ष्य करके वस्तु को ग्रहण करती है। परमार्थसत्य विशेषहीन होने से वह बुद्धि से किस तरह ग्राह्य हो सके? परमार्थसत्य मौनरुप है। बद्धो के द्वारा उसकी देशना नहीं हो सकती । देशना उस तत्त्व की होती है, कि जो शब्दो के द्वारा अभिहित किया जा सके। परमतत्त्व न तो वाणी का विषय है, न चित्त का विषय (गोचर) है। वाणी और मन उस तत्त्व तक नहीं पहुंच सकते । माध्यमिक कारिका में कहा है कि "निवृत्तमभिधातव्यं निवृत्ते चित्तगोचरे । अनुत्पन्ना निरुद्धा हि निर्वाणमिव धर्मता ॥१८७ मा०का० ॥ अपने ही आत्मा से उस तत्त्व की अनुभूति कर सकते है । इसलिये ही परमार्थसत्य "प्रत्यात्मवेदनीय" है। व्यवहार की उपयोगिता : माध्यमिको का यह (उपरोक्त बताया गया) पक्ष हीनयानिओ की दृष्टि में नितान्त गर्हणीय है। आक्षेप का बीज यह है कि जब परमार्थ शब्दतः अवर्णनीय है और व्यवहारसत्य जादू से चलते फिरते रुपो की भांति भ्रममात्र है। तो स्कन्ध, आयतनादितत्त्वो का उपदेश देने की सार्थकता किस प्रकार से प्रमाणित किया जा सकेगा? इस आक्षेप का नागार्जुन उत्तर देते है कि
"व्यवहारमनाश्रित्य परमार्थो न देश्यते । परमार्थमनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते । तदेतदार्याणामेव स्वसंविदितस्वभावतया प्रत्यात्मसंवेद्यं परमार्थसत्यम् ।" (बोधिचर्या -- पृ.३६७) आशय यह है कि व्यवहार का आश्रय लिये बिना परमार्थ का उपदेश नहीं दिया जा सकता और परमार्थ की
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