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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ९, बोद्धदर्शन
में होता है। अर्थात् प्रत्यक्ष विषय से अन्य परोक्षविषयो की राशि में अन्तर्भाव करता है। क्योंकि, प्रत्यक्ष से प्रतीत न होते सभी पदार्थो के समूह प्रत्यक्ष से अन्य होने के कारण परोक्ष रुप में व्यवस्थापन किया जाता है। अर्थात् परोक्ष विषयो में उसकी गणना होती है। इसलिए प्रत्यक्ष और परोक्ष से अन्य तीसरा प्रकार नहीं है। यदि ऐसा नहीं मानोंगें तो प्रत्यक्ष अपने विषयभूत पदार्थ का अन्य (अप्रत्यक्ष) पदार्थो से व्यवच्छेद नह कर सकेगा और इसलिये प्रत्यक्ष अपने स्वरुप का भी प्रतिनियत रुप में ज्ञान नहीं करा सकेगा । अर्थात् कोई भी पदार्थ प्रत्यक्ष से ज्ञात नहीं बन सकेगा ।
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क्योंकि, प्रमाण उसे ही कहा जाता है, जिससे पदार्थों की प्रतिनियतस्वरुप से व्यवस्था होती हो। (उपरांत पदार्थो के प्रतिनियतस्वरुप का यथावस्थित प्रतिपादन अन्यधर्मो के व्यवच्छेद से ही होता है। इससे प्रमाण अन्य से व्यवच्छेद करने द्वारा पदार्थ के प्रतिनियतस्वरुप को बताने का काम करता है ।) ऐसा नहीं मानेंगे तो (अर्थात् प्रमाण प्रतिनियत स्वरुप की व्यवस्था न करे) तो सभी पदार्थ सर्व आकारों में उपलब्ध होने की आपत्ति आयेगी। ऐसी अवस्था में जगत के "यह पानी है, यह अग्नि है, " इत्यादि प्रतिनियत व्यवहारो का लोप हो जायेगा। यदि वस्तु की प्रतिनियत स्वरुपता प्रत्यक्ष से प्रतीत न होती हो, तो प्रत्यक्ष से पदार्थ का कौन सा स्वरुप प्रतीत होगा ? )
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इसलिये सिद्ध होता है कि, प्रत्यक्ष प्रतिनियत स्वरुप का प्रतिपादन करता है । इस प्रकार पदार्थ के यथावस्थित स्वरुप के अवभासक प्रत्यक्ष से (प्रत्यक्ष और परोक्ष के सिवा) दूसरे प्रमेय का अभाव ही प्रतिपादित होता है | (इस प्रकार ) अनुमान से भी प्रमेयान्तर का अभाव प्रतीत होता ही है । क्योंकि, अन्योन्यव्यवच्छेदक करनेवाले दो प्रकार में से एक प्रकार का व्यवच्छेद होने से उससे इतर दूसरे प्रकार की व्यवस्था हो जाती है। (अर्थात् कहने का आशय यह है कि परस्पर व्यवच्छेद करनेवाले प्रत्यक्ष और परोक्ष में से एक प्रकार प्रत्यक्ष का व्यवच्छेद करने से उससे इतर परोक्ष की व्यवस्था हो जाती है और एक प्रकार परोक्ष का व्यवच्छेद करने से उससे इतर प्रत्यक्ष की व्यवस्था हो जाती है । इसलिये प्रत्यक्ष और परोक्ष से भिन्न प्रमेयान्तर नहीं है । वह सिद्ध होता है ।) प्रयोग इस अनुसार है । यत्र यत्प्रकारव्यवच्छेदेन तदितरप्रकारव्यवस्था, न तत्र प्रकारान्तरसंभवः । तद्यथा पीतादौ नीलप्रकार व्यवच्छेदेनअनीलप्रकारव्यवस्था । जहाँ जिस प्रकार के व्यवच्छेद से उससे इतर प्रकार की व्यवस्था होती है, वहाँ प्रकारान्तर का संभव नहीं है। जैसे कि, पीतादि में नील प्रकार के व्यवच्छेद द्वारा अनील (पीत) प्रकार की व्यवस्था होती है और उससे नील और अनील से इतर प्रकार की संभावना भी नष्ट होती है ।
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प्रत्यक्ष और परोक्षरुप प्रकार भी अन्योन्यव्यवच्छेद करके अपने स्वरुप की व्यवस्था करते है । इससे संसार के सर्वप्रमेयो में या तो प्रत्यक्षता का व्यवच्छेद करके परोक्षता होगी अथवा या तो परोक्षता का व्यवच्छेद द्वारा प्रत्यक्षता होगी, वे दोनों से भिन्न प्रकार की संभावना नहीं है । जगत के प्रमेयो में यह व्यवस्था करनेवाला हेतु विरुद्धोपलब्धि है। क्योंकि, तत्प्रकारप्रत्यक्ष और अतत्प्रकारपरोक्ष, परस्पर का परिहार करके अपनी स्थिति निश्चित करते है । इसलिये तीसरे प्रमेय का अभाव होने से प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाण
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