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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
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कर दे । परन्तु आलयविज्ञान का प्रवाह सतत चालू रहता है। आलयविज्ञान की चैतन्यधारा कभी उपशांत नहीं होती । वह प्रत्येक व्यक्ति में रहता है। परन्तु समष्टिचैतन्य का प्रतीक है। आलयविज्ञान के चैत्तधर्म : आलयविज्ञान के साथ सम्बद्ध सहायक चैत्तधर्म पाँच माने जाते है । (१) मनस्कार : (चित्त की विषय के प्रति एकाग्रता) (२) स्पर्श : (इन्द्रिय तथा विषय के साथ विज्ञान का सम्पर्क), (३) वेदना : (सुख-दुःख की भावना), (४) संज्ञा : (कोई वस्तु का नाम), (५) चेतना : (मन की वह चेष्टा कि जो रहने से चित्त आलंबन के प्रति स्वतः झूकता है ।) (स्थिरमति कहते है कि, चेतना चित्ताभिसंस्कारो मनसश्चेष्टा । यस्यां सत्यात्मालम्बनं प्रति चेतसः प्रस्यन्द इव भवति, अयस्कान्तवशाद् अयः प्रस्यन्दवत्)
जो वेदना आलयविज्ञान के साथ सहायक धर्म है, वह उपेक्षाभाव है, कि जो अनिवृत्ति तथा अव्याकृत माना जाता है। उपेक्षा मनोभूमि में विद्यमान रहनेवाले आगंतुक उपक्लेशो से ढकी हुई नहीं रहती। इसलिये वह उपेक्षा प्राणीओ को निर्वाण पहुंचाने में समर्थ होती है। जो विज्ञान का यह विश्व विजृम्भणमात्र माना जाता है, वह विज्ञान आलयविज्ञान है। योगाचारमतानुसार पदार्थ समीक्षा : योगाचार मतवाले आचार्यो विश्व के समग्र धर्मो (पदार्थो) का वर्गीकरण दो प्रधानविभाग में करते है । (१) संस्कृत, (२) असंस्कृत ।
जो हेतु-प्रत्यय जनित है अर्थात् जो कोई कारण तथा सहायक कारण से उत्पन्न होकर अपनी स्थिति प्राप्त करते है वे संस्कृत धर्म है और जो हेतु-प्रत्यय में जन्य नहीं है परन्तु स्वतः सिद्ध है वह असंस्कृत धर्म है। इस धर्म की स्थिति कोई कारण के उपर अवलंबित नहीं है। इन दोनो के अंदर अवान्तरभेद भी है। संस्कृतधर्मो के चार भेद है : (१) रुपधर्म - ११ है। वह वैभाषिको के अनुसार जानना । (२) चित्त के ८ भेद है। (३) चैत्तसिक के ५१ भेद है। (४) चित्तविप्रयुक्त के २४ भेद है। चौदह भेद वैभाषिक मत में बताये उस अनुसार तथा १० नये धर्म इस अनुसार है।
(१) प्रवृत्ति-संसार, (२) एवंभागीय-व्यक्तित्व, (३) प्रत्यनुबन्ध-परस्पर सापेक्षसंबंध, (४) जघन्यपरिवर्तन, (५) अनुक्रम-क्रमशःस्थिति, (६) देश-स्थान, (७) काल-समय, (८) संख्या-गणना, (९) सामग्रीपरस्परसमवाय, (१०) भेद-पृथक् स्थिति ।
असंस्कृत छः धर्म : (१) आकाश, (२) प्रतिसंख्यानिरोध, (३) अप्रतिसंख्यानिरोध, (४) अचल, (५) संज्ञा-वेदना-निरोध, (६) तथता।
(१-३) प्रथम तीन वैभाषिकों के (सर्वास्तिवादियों की) कल्पनानुसार है। वे पूर्व में बताये गये है। बाकी
के तीन की व्याख्या की जाती है। (४) अचल : इस शब्द का अर्थ है उपेक्षा । उपेक्षा से सुखदुःख की भावना का सम्पूर्ण तिरस्कार है। विज्ञानवादियो के
मत से 'अचल' की दशा का भी तब ही साक्षात्कार होता है कि जब सुख और दुःख उत्पन्न न हो । इस चतुर्थ
ध्यान में देवता की मनःस्थिति के समान मानसस्थिति है। (५) संज्ञा-वेदना-निरोध : यह दशा तब प्राप्त होती है कि, जब योगी निरोधसमापत्ति में प्रवेश करते है और सत्ता तथा
वेदना के मानसधर्मो को बिलकुल अपने वश में कर लेते है।
प्रथम पाँच संस्कृतधर्मो को स्वतंत्र मानना उचित नहीं है। क्योंकि 'तथता' के परिणाम से तत् तत् भिन्न-भिन्न रुप है। 'तथता' ही विश्व में परिणाम धारण करती है और वे पांचो धर्म तथता का आंशिक
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