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प्रकाशा वाप्रकाशा वा यदा दृष्टा न केनचित् ।
वन्ध्यादुहितृलीलैव कथ्यमानापि सा मुधा ॥ (बोधिचर्यावतार - ९-२३)
- इसलिए विज्ञान की कल्पना प्रमाणो के द्वारा सिद्ध नहीं हो सकती। जगत के समस्तपदार्थ निःस्वभाव है । विज्ञान भी इस प्रकार से निःस्वभाव है। शून्य ही परमतत्त्व है। इसलिए विज्ञान की सत्ता किसी भी प्रकार से मान्य नहीं है।
बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
कारणतावाद : जगत कार्य-कारण के नियम के उपर चलता है और दार्शनिको को उसकी सत्ता में दृढ विश्वास है। परन्तु नागार्जुन की समीक्षा कार्य-कारण की कल्पना को खण्डित करती है। ( वह मानते है कि) कार्य-कारण की स्वतंत्र कल्पना हम नहीं कर सकते। कोई भी पदार्थ कारण को छोड़कर नहीं रह सकता और कारण भी कार्य से पृथक् कभी भी दृष्टिगोचर नहीं होता । कार्य के बिना कारण की सत्ता और कारण के बिना कार्य की सत्ता नहीं मानी जा सकती । कार्य-कारण की कल्पना सापेक्षिक है । इसलिये असत्य है तथा निराधार है। नागार्जुन कहते है कि, पदार्थ न स्वतः उत्पन्न होता है न तो दूसरो की सहाय से (परत:) उत्पन्न होता है और न तो दोनो से और अहेतु से भी उत्पन्न नहीं होता । इस प्रकार ये सब में किसी भी प्रकार से भावो की - पदार्थो की उत्पत्ति प्रमाणो के द्वारा सिद्ध नहीं होती। माध्यमिककारिका में यही बात की
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"न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः । उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावा क्वाचन केचित् ॥” पृष्ठ-१२ ॥ उत्पादके अभाव में विनाश सिद्ध नहीं होता। यदि विभव (विनाश) तथा संभव (उत्पत्ति) इस जगत में है, तो वह एक दूसरे के साथ रह सकते है या एकदूसरे के बिना भी विद्यमान रह सकेगा। विभव (विनाश) संभव के बिना किस प्रकार से उत्पन्न हो सकेगा ? जब तक पदार्थ का जन्म ही नहीं हुआ, तब तक उसके विनाश की चर्चा करना बिलकुल अनुचित है । माध्यमिक कारिका में यही बात की है । " भविष्यति कथं नाम विभवः संभवं विना । विनैव जन्ममरणं विभवो नोद्भवं विना ॥ २१२ ॥
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इसलिए विभव, संभव के बिना रह नहीं सकता । संभव के साथ भी विभव नहीं रह सकता । क्योंकि, भावनाएं परस्परविरुद्ध है। ऐसी दशा में जिस प्रकार से जन्म और मृत्यु एक समय में साथ नहीं रह सकते, उस प्रकार से उत्पत्ति और विनाश, की जो विरुद्धपदार्थ है, वे भी तुल्यसमय में साथ नहीं रह सकता ।
माध्यमिक कारिका में यही बात की है। "सम्भवेनैव विभवः कथं सह भविष्यति । न जन्ममरणं चैवं तुल्यकालं हि विद्यते ॥ (२१/३)
इसलिये उत्पत्ति और विनाश की कल्पना प्रमाणतः सिद्ध नहीं होती । इस कारण से नागार्जुन के मत में "परिणाम" नाम की कोई वस्तु सिद्ध नहीं होती । इसकी चर्चा करते हुए कहा है कि - साधारण भाषा में हम कहते है कि, युवक वृद्ध होता है तथा दूध दहीं बनता है । परन्त वस्तुतः यह बन सकता है ? युवान जीर्ण (वृद्ध) नहीं हो सकता, क्योंकि युवानी में एक साथ यौवन तथा जीर्णता (वृद्धता) विरोधीधर्म नहीं रह सकते । किसी पुरुष को हम यौवन के कारण युवान कहते है, तब युवान वृद्ध किस तरह होगा ? जीर्ण को जरायुक्त बताना वह ठीक नहीं है। जो स्वयं वृद्ध है, वह पुनः किस तरह जीर्ण होगा ? इसलिए उपर जो "युवक वृद्ध होता है" वह साधारण भाषा में की हुई कल्पना ही अनावश्क होने से व्यर्थ है । माध्यमिककारिका में कहा है कि
तस्यैव नान्यथाभावो नाप्यन्यस्यैव युज्यते । युवा न जीर्यते यस्माद् यस्माज्जीर्णो न जीर्यते ॥ १३५ ॥ इसी प्रकार से दहीं दूध में से बन जाता है । वह साधारण कल्पना भी अनावश्यक होने से व्यर्थ है ।
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