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(३) योगाचार (विज्ञानवादि ) की मान्यता :
योगाचारमत बौद्धदर्शन के विकास का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है । उसकी दार्शनिक दृष्टि शुद्ध प्रत्ययवादकी है। आध्यात्मिक सिद्धांत के कारण उसे "विज्ञानवाद" कहा जाता है। और धार्मिक तथा व्यवहारिक दृष्टि से उसका नाम "योगाचार" है । ऐतहासिक दृष्टि से 'योगाचार' की उत्पत्ति माध्यमिको के प्रतिवाद के स्वरुप में हुई है ।
बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
माध्यमिक लोग जगत् के सर्वपदार्थो को शून्य मानते है। उसके प्रतिवाद में योगाचार संप्रदाय की उत्पत्ति हुई। योगाचार मतवाले कहते है कि, जो बुद्धि के द्वारा जगत के पदार्थ असत्य प्रतीत हो रहे है (इसलिये ) कम से कम वह बुद्धि को तो सत्य मानना ही पडेगा ।
इसलिये यह संप्रदाय विज्ञान (बुद्धि, चित्त, मन ) को एकमात्र सत्य पदार्थ मानते है । इस मत की स्थापना मैत्रेयनाथने की हुई मानी जाती है। वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति इस मत के आचार्य थे ।
(आगे) सौत्रान्तिकमत की पर्यालोचना के अवसर पर उसका दार्शनिक दृष्टि से परिचय किया। उसके मत में
अर्थ की सत्ता ज्ञान द्वारा अनुमेय है। हमको बाह्यार्थ की प्रतीति होती है। इसलिए हमको बाह्यार्थ की सत्ता का अनुमान होता है। इसलिये ज्ञान के द्वारा ही बाह्यपदार्थो के अस्तित्व का परिचय होता है । विज्ञानवादि (योगाचार) उससे आगे बढकर कहता है कि, यदि बाह्यार्थ की सत्ता ज्ञान के उपर अवलंबित है, तो ज्ञान ही वास्तविक सत्ता है । विज्ञान अर्थात् विज्ञप्ति ही एकमात्र पदार्थ है । जगत के पदार्थ तो वस्तुतः मायामरीचिका के समान निःस्वभाव तथा स्वप्नसमान निरुपाख्य है । जिसको हम बाह्यपदार्थ कहते है उसका विश्लेषण करे तो वहाँ आंख से देखे गये रंग- आकार, हाथ से छुओ हुअ रुक्षता, चिकनाहट आदि गुण मिलते है । इससे अतिरिक्त कोई वस्तुस्वभाव का परिचय हमको नहीं होता है ।
प्रत्येक वस्तु को देखकर हमको नीला-पीला रंग तथा लंबाई, चौडाई, बड़ाई आदि को छोडकर केवल रुप भौतिक तत्त्व दिखाइ देता नहीं है। बाह्यपदार्थ का ज्ञान हमको किसी भी प्रकार से नहीं होता । यदि बाह्यपदार्थ अणुरूप है, तो उसका ज्ञान नहीं हो सकेगा । और यदि प्रचय रुप है । ( अर्थात् अनेक परमाणुओ के संघात से बना हुआ ) हो तो भी उसका ज्ञान संभव नहीं है। क्योंकि प्रचयरूप पदार्थों के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग का एककालिक ज्ञान संभव नहीं है। ऐसी अवस्था में हम बाह्य पदार्थ की सत्ता किस प्रकार से मान सकते है ? सत्ता केवल एक ही पदार्थ की है । वह पदार्थ विज्ञान है ।
विज्ञानवादि विशुद्धप्रत्ययवादि है। उनकी दृष्टि में भौतिक पदार्थ नितरां असिद्ध है। विज्ञान ही बाह्य पदार्थो के अभाव में भी सत्य पदार्थ है। विज्ञान को अपनी सत्ता के लिये कोई अवलंबन की आवश्यकता नहीं है। वह अवलंबन के बिना ही सिद्ध है। इस कारण से विज्ञानवादिको निरालंबनावादि की संज्ञा प्राप्त हुई है ।
माध्यमिको का शून्यवाद विज्ञानवादियो की दृष्टि से नितान्त हेय (त्याज्य) सिद्धांत है । माध्यमिको को लक्ष्य बनाकर उनका कथन है कि....." यदि आपका सर्वशून्यता का सिद्धांत मान्य किया जाये तो शून्य ही आपके लिये सत्यता के माप की कसौटी होगी। इसलिये दूसरे वादि के साथ वाद करने का आपको अधिकार कभी भी प्राप्त नहि होगा ?" (इसलिये कहा है कि " त्वयोक्तसर्वशून्यत्वे प्रमाण शून्यमेव ते । वादेऽधिकारस्ते न परेणोपपद्यते ॥ सर्वसिद्धांतसंग्रह ") प्रमाण भावात्मक होगा, तो ही वाद-विवाद का अवकाश है। शून्य को प्रमाण मानने से शास्त्रार्थ की कसौटी ही किस प्रकार माने, कि जिससे हार या जीत की व्यवस्था हो सके ? ऐसी दशा में आप किस प्रकार से अपने पक्ष की स्थापना करेंगे और दूसरो के पक्ष में दूषण
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