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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ११, बोद्धदर्शन
सौत्रान्तिक-योगाचार-माध्यमिक-भेदाञ्चतुर्धा बौद्धा भवन्ति । तत्रार्यसमितीयापरनामकवैभाषिकमतमदः - चतुःक्षणिक वस्तु । जातिर्जनयति । स्थितिः स्थापयति । जरा जर्जरयति । विनाशो विनाशयति । तथात्मापि तथाविध एव पुद्गलश्चासावभिधीयते । B-32निराकारो बोधोऽर्थसहभाव्येकसामग्र्यधीनस्तत्रार्थे प्रमाणमिति । सौत्रान्तिकमतं पुनरिदम्रुपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काराः सर्वशरीरिणामेते पञ्च स्कन्धा-33 विद्यन्ते, न पुनरात्मा । त एव हि परलोकगामिनः । तथा च तत्सिद्धान्तःB-34 । पञ्चेमानि भिक्षवः संज्ञामानं प्रतिज्ञामात्रं संवृतिमात्रं व्यवहारमात्रम् । कतमानि पञ्च । अतीतोऽद्धा, अनागतोऽद्धा, सहेतुको विनाशः, आकाशं, पुद्गल इति । अत्र पुद्गलशब्देन परपरिकल्पितो नित्यत्वव्यापकत्वादिधर्मक आत्मेति । बाह्योऽर्थो नित्यमप्रत्यक्ष एव ज्ञानाकारान्यथानुपपत्त्या तु सन्नवगम्यते । साकारो बोधः प्रमाणम्-35 । तथा क्षणिकाः सर्वसंस्काराः । स्वलक्षणं B-36परमार्थः यदाहुस्तद्वादिनः । प्रतिक्षणं विशरारवो रुपरसगन्धस्पर्शपरमाणवो ज्ञानं चेत्येव तत्त्वमिति [ ] । B-37अन्यापोहः शब्दार्थः । तदुत्पत्तितदाकारताभ्यामर्थपरिच्छेदः । B-38नैरात्म्यभावनातो ज्ञानसंतानोच्छेदो मोक्ष इति । टीकाका भावानुवाद :
यहाँ मूल श्लोक में नहि कहा हुआ भी कुछ विशेष कहा जाता है। अर्थाधिगम प्रमाण का फल है, कि जो प्रमाण से सर्वथा अभिन्न होता है। तर्क और प्रत्यभिज्ञा प्रमाणभूत नहीं है । स्वलक्षण, परस्पर अत्यंत भिन्न क्षणिक परमाणुरुप होता है। वही प्रमाण का तात्त्विक विषय है। कर्म वासनारुप है। सुख और दुःख धर्माधर्मस्वरुप पर्याय ही है। द्रव्यरुप नहीं है। वस्तु में मात्र स्वसत्त्व ही होता है। परन्तु परासत्त्व नहीं होता है। अर्थात् परस्वरुप से असत्त्व (नास्तिता) नहीं होता। यह सामान्य बौद्धमत का निरुपण है।
अथवा वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार, माध्यमिक के भेद से चार प्रकार के बौद्ध है । उसमें आर्यसमितीय जिनका दूसरा नाम है उस वैभाषिक का मत यह है कि, वस्तु चार क्षणस्थायी होती है। अर्थात् चारक्षण पर्यन्त रहती है। जाति (क्षण को) उत्पन्न करता है। स्थिति स्थापन करती है, जरा जर्जरित करती है और विनाश नाश करता है। आत्मा भी चारक्षण स्थायी है और उस प्रकार के आत्मा को ही पुद्गल कहा
जाता है।
अर्थ के साथ उत्पन्न होनेवाले तथा एकसामग्री को अधीन है, ऐसा निराकारबोध अर्थ में प्रमाण है। (यहाँ याद रखना कि, जैसे पूर्व-अर्थक्षण से उत्तर अर्थक्षण उत्पन्न होती है। उसी तरह उससे ज्ञान भी उत्पन्न होता है। पूर्व अर्थक्षण उत्तर अर्थक्षण में उपादान कारण होती है और ज्ञान में निमित्तकारण होती है।)
सौत्रान्तिक मत यह है - सर्व जीवो के रुप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार ये पांच स्कन्ध होते है, (B-32-33-34-35-36-37-38) - तु० पा० प्र० प० ।
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