________________
८२
टीकाका भावानुवाद :
शंका : तीन रुपवाले हेतु कितने प्रकार से होते है ?
समाधान : पहले भी हमने तीन स्वरुपवाले हेतुओ के (१) अनुपलब्धि, (२) स्वभाव और (३) कार्य इस तरह तीन प्रकार कहे थे और उसके उदाहरण भी पहले बता चुके है। तो भी पुन: (फिरसे) स्वभावहेतु का उदाहरण देते है।
सर्वं क्षणिकम्, सत्त्वात् । यहां 'सर्वं क्षणिकम्' पक्ष है और 'सत्त्व' हेतु है । "सत्त्व" हेतु, पक्ष 'सर्व' में रहता है। इसलिये हेतु का पक्षधर्मत्व स्वरुप है।
I
षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ११, बोद्धदर्शन
यत् सत् तत् क्षणिकम् यथा विद्युदादि । अर्थात् जो सत् है वह क्षणिक होता है। जैसे कि, बीजली इत्यादि। यहाँ सपक्ष में हेतु रहता है । इसलिये हेतु का सपक्षसत्त्व स्वरुप विद्यमान है।
यत् क्षणिकं न भवति, तत्सदपि न भवति यथा खपुष्पम् । जो क्षणिक नहीं है वह सत् भी नहीं है । जैसेकि आकाशकुसुम। (यहाँ विपक्ष में हेतु की अवृत्ति है। इसलिये हेतु का विपक्षासत्त्व स्वरुप विद्यमान है।) उपरांत क्षणिक के विपक्षभूत नित्य में क्रम से या युगपद् से अर्थक्रिया स्वरुप सत्त्व की (पहेल बताये अनुसार) संगति होती न होने से अर्थात् नित्य में क्रम या युगपद् से अर्थक्रिया संगत न होने से विपक्षभूत नित्य में से सत्त्वरुप हेतु की व्यावृत्ति होती है । इसलिये हेतु का विपक्षासत्त्व स्वरुप है ।
तथा ‘सच्च सर्वम्' सर्व सत् है । इस अनुसार उपनय है । सत्त्वात् सर्वं क्षणिकम् - सत्त्व होने से सर्व क्षणिक है यह निगमन है ।
इस प्रकार अन्य हेतुओ में भी जानना । यद्यपि व्याप्तियुक्त पक्षधर्मता के उपसंहारस्वरुप अनुमान बौद्धो को द्वारा स्वीकृत हुआ है। तो भी मंदबुद्धिवालो को बोध देने के लिये पंचावयवयुक्त अनुमानवाक्य बताया गया है । उसमें कोई दोष नहीं है ।
(उपरोक्त) दो श्लोक का तात्पर्यार्थ यह है कि पक्षधर्मत्व, अन्वय और व्यतिरेक स्वरुप तीन रुपो से उपलक्षित लिंग हेतु के अनुपलब्धि, स्वभाव तथा कार्य ऐसे तीन प्रकार है ।
B-30
अत्रानुक्तोऽपि विशेषः कश्चन लिख्यते । तत्र प्रमाणादभिन्नमर्थाधिगम एव प्रमाणस्य - 29 फलम् । तर्कप्रत्यभिज्ञयोरप्रामाण्यं, परस्परविनिर्लुठितक्षणक्षयिपरमाणुलक्षणानि स्वलक्षणानि - 30, प्रमाणगोचरस्तात्त्विकः । B - 31 वासनारूपं कर्म, सुखदुःखे धर्माधर्मात्मके पर्याया एव सन्ति, न द्रव्यम् । वस्तुनि केवलं स्वसत्त्वमेव, न पुनः परासत्त्वमिति सामान्येन बौद्धमतम् । अथवा वैभाषिक -
अ
द्वादशैव पदार्थो आयतनसंज्ञयोच्यते, तद्यथा- पञ्चेन्द्रियाणि पञ्च शब्दादयो मनो धर्मायतनं च । धर्मास्तु सुखादयो विज्ञेयाः अविसंवादिज्ञानं प्रमाणमिति प्रमाणस्य लक्षणं । प्रत्यक्षानुमाने द्वे एव प्रमाणे । इति प्रत्यन्तरेऽधिकः पाठो दरीदृश्यते ।
(B-29-30-31) - तु० पा० प्र० प० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org