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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १०, बोद्धदर्शन
प्रतिबन्धकविकला बीजादिसामग्री स्वकार्योत्पादने समग्रत्वात् पूर्वदृष्टबीजादिसामग्रीवदिति योग्यतानुमानम् । अतः स्वभावहेतुप्रभवे एवैते, न पुनः कारणात् कार्यानुमान इति ।। १० ।।
टीका का भावानुवाद :
अब अनुमान का लक्षण कहते है ....
पक्षधर्मत्वादि तीन स्वभावो से अर्थात् तीन लिंगो से परोक्ष ऐसी वस्तु का ( लिंगिका) जो ज्ञान होता है, उसे अनुमान नाम का प्रमाण कहा जाता है । अनुमान शब्द का अर्थ इस अनुसार है
अनु = पश्चात् अर्थात् लिंगग्रहण के अनंतर परोक्षवस्तु का मान = ज्ञान होता है, वह अनुमान कहा जाता है। यहां श्लोक के अंतिम पाद (चरण) में नौ अक्षर होने पर भी श्लोक ऋषिप्रणित होने से दोष नहीं है । (संक्षिप्तमें) कहने का आशय यह है कि, जैसे लोक में छत्रादि लिंगो को देखने के द्वारा लिंगी ऐसे राजा का निश्चय किया जाता है, वैसे तीन स्वरुपवाले कही पर प्राप्त हुए धूमादि लिंग के द्वारा परोक्ष पदार्थ ऐसे लिंगी वयादि की सत्ता का वहाँ ज्ञान होता है। लिंग से होनेवाला लिंगि के ज्ञान को अनुमान कहा जाता है। वह अनुमान दो प्रकार से है । ( १ ) स्वार्थानुमान, (२) परार्थानुमान । उसमें जब तीनरुपवाले लिंग से स्वयं लिंगि ऐसे साध्य का ज्ञान होता है, उसे स्वार्थानुमान कहा जाता है । परन्तु जब दूसरे को साध्य का ज्ञान कराने के लिये तीन रुपवाले हेतु का कथन किया जाये, तब वह परार्थानुमान कहा जाता है। श्लोक में "लिंङ्गिज्ञानं तु” कहा, उसमें "तु" शब्द लिंग के भेदो को सूचित करता है ।
यहां श्लोक में तीन रुपवाले लिंग को लिंगि (साध्य) का गमक कहा है, वह लिंग तीन प्रकार के है । (१) अनुपलब्धिहेतु, (२) स्वभावहेतु, (३) कार्यहेतु । उसमें अनुपलब्धि के मूलभेद की अपेक्षा से चार प्रकार है । (१) विरुद्धोपलब्धि, (२) विरुद्धकार्योपलब्धि, (३) कारणानुपलब्धि, (४) स्वभावानुपलब्धि । (अब चारो प्रकारो को उदाहरण के साथ समजाते है | )
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(१) विरुद्धोपलब्धि : "यथा नात्र शीतस्पर्शोऽग्नेः " । यहाँ शीत स्पर्श नहीं है। क्योंकि उसका विरोधी अग्नि उपलब्ध है।
(२) विरुद्धकार्योपलब्धि : " यथा नात्र शीतस्पर्शो धूमात् ।" यहाँ शीत स्पर्श नहीं है, क्योंकि, उसके विरोधी अग्नि का कार्य धूम उपलब्ध है
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(३) कारणानुपलब्धि : “यथा नात्र धूमोऽग्न्यभावात् ।" यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि, (धूमरुप कार्य का) कारण अग्नि उपलब्ध नहीं है ।
(४) स्वभावानुपलब्धि : " यथा नात्र धूम उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य अनुपलब्धेः ।" यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि, उपलब्धि लक्षण प्राप्त होने पर भी उसकी उपलब्धि नहीं है । अथवा दृश्य होने पर भी उसकी उपलब्धि नहीं होती है । (उपलब्धिलक्षणप्राप्त का अर्थ है - धूम की उपलब्धि की यावत् सामग्री का समवधान होना ।)
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