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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १०, बोद्धदर्शन
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करना वही अनुमान की भ्रान्तता है। (प्रश्न : तो अनुमान को प्रमाण क्यों कहते है ?
उत्तर : अनुमान यद्यपि भ्रान्तिरुप होने पर भी) परंपरा से बाह्य स्वलक्षण के बल से उत्पन्न होता है, इसलिए ही वह प्रमाण है।
(बौद्धाचार्यश्री धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष से भिन्न अनुमान की आवश्यकता बताने के समय उपर्युक्त बात की पुष्टी की है। उसका कहना है कि, वस्तु का जो सामान्यरुप है, उसका ग्रहण कल्पना से अतिरिक्त अन्य वस्तु से हो सकता नहीं है। इसलिए अनुमान की आवश्यकता है। कहा है कि अन्यत् सामान्यलक्षणम् । सोऽनुमानस्य विषयः । (न्यायबिंदु १।१६-१७) स्वलक्षणे च प्रत्यक्षमविकल्पतया विना । विकल्पेन न सामान्यग्रहस्तस्मिन्नतोऽनुमा । (प्रमाण वार्तिक - ३७५) या च संबन्धिनो धर्माद् भूतिधर्मिणि जायते । सानुमानं परोक्षणामेकं तेनैव साधनम् ॥ ३॥६२ ॥
कोई संबंधित धर्म से धर्मी के विषय में जो परोक्षज्ञान होता है उसे अनुमान कहा जाता है। जगत में हमारा प्रतिदिन का अनुभव है कि सदा साथ में रहनेवाली दो वस्तुओ में से एक को देखकर दूसरी वस्तु की स्थिति की संभावना स्वयं उपस्थित हो जाती है। परन्तु प्रत्येक अवस्था में वह अनुभव प्रमाणकक्षा में नहीं आ सकता। परंतु दोनो वस्तुओ का उपाधिरहित संबंध सदा विद्यमान रहना चाहिए। उसको ही व्याप्तिज्ञान कहते है और इस व्याप्तिज्ञान के उपर ही अनुमान अवलंबित रहता है।)
इस प्रकार अनुमान परंपरा से बाह्य स्व-लक्षण के बल से उत्पन्न होता है, इसलिए प्रमाणरुप बनता है। वह इस प्रकार यदि स्वलक्षणरुप (धूमादि) अर्थ न हो, तो तादात्म्य या तदुत्पत्तिरुप अविनाभावसंबंध रखनेवाले लिंग की संभावना ही नहीं है और लिंग के बिना लिंगविषयक ज्ञान किस तरह होगा? (अर्थात् यदि लिंग ही नहीं है, तो लिंगज्ञान किस प्रकार होगा?) लिंगज्ञान के बिना पहले निश्चित किये हुए संबंध (व्याप्ति) का स्मरण भी किस प्रकार होगा? और उस व्याप्ति के स्मरण के बिना अनुमान भी किस प्रकार होगा? इस प्रकार यद्यपि अनुमान भ्रान्त होने पर भी, परंपरा से अर्थ के साथ संबंध होने के कारण अनुमान की प्रमाणता का स्वीकार किया गया है । इसलिये कहा है कि.... "अनुमान अतस्मिन् अर्थात् जो स्वलक्षणरुप नहीं है, उस मिथ्या सामान्य में तद्ग्रह अर्थात् स्वलक्षणात्मकता को ग्रहण करने के कारण भ्रान्त है, फिर भी संधान से (अर्थात् उस में परंपरा से अर्थ के साथ संबंध होने के कारण) प्रमाण है।" यही बात को श्री धर्मकीर्ति ने 'विनिश्चय' नाम के ग्रंथ में दृष्टांत देकर पुष्ट करते हुए कहा है कि...
"मणि और दिपक की प्रभा में मणि की बुद्धि से प्रवृत्ति करनेवाले दो व्यक्तिओं का (अर्थात् मणि की प्रभा में मणि का ज्ञान करने से तथा दिपक की प्रभा में मणि का ज्ञान करने से, ये दो व्यक्तिओ का ज्ञान आलंबन की दृष्टि से भ्रान्त है। (मिथ्याज्ञान ही है। फिर भी वे दो ज्ञानो से प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषो की अर्थक्रिया में विशेषता होती ही है। (अर्थात् मणिप्रभा में मणिबुद्धिवाले को मणि की प्राप्ति हो जाती है, परन्तु दिपक की प्रभा में मणिबुद्धिवाले को मणि की प्राप्ति नहीं होती।) इस अनुसार अनुमान और अनुमानाभास
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