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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३
धाविभिर्ज्ञातव्यानि । न पुनरवान्तरतद्द्भेदापेक्षयाधिकानि परमार्थतस्तेषामेष्वेवान्तर्भावात् । षडेवेति सावधारणं पदम् । केन हेतुना मूलभेदानां षोढात्वमित्याशंक्याह । देवतातत्त्वभेदेनेति । देवा एव देवताः, स्वार्थेऽत्र तल्प्रत्ययः, तत्त्वानि प्रमाणैरुपपन्नाः परमार्थसन्तोऽर्थाः, द्वन्द्वे देवतातत्त्वानि तेषां भेदेन पार्थक्येन । ततोऽयमत्रार्थः । देवतातत्त्वभेदेन यतो दर्शनानां षडेव मूलभेदा भवेयुस्ततः षडेवात्र दर्शनानि वक्ष्यन्ते, न पुनरुत्तरभेदापेक्षयाधिकानीति । एतेन प्राक्तनश्लोके सर्वशब्दग्रहणेऽपि षडेवात्र दर्शनानि वक्तुं प्रतिज्ञातानि सन्तीति ज्ञापितं द्रष्टव्यम् ।।२ ।।
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टीकाका भावानुवाद :
इस प्रस्तुत ग्रंथ में मूलभेद की अपेक्षा से छ: ही दर्शन बुद्धिमानो के द्वारा जानना । परन्तु अवान्तर भेदो की अपेक्षा से अधिक दर्शनो का वाच्यार्थ नहीं कहा। क्योंकि, परमार्थ से तत् तत् अवान्तरदर्शनो का ये छ: दर्शनो में अन्तर्भाव हो ही जाता है। श्लोक में जो " षडेव" में "एव" कार है, वह अवधारण में है। अर्थात् दर्शन छ: ही जानना । उससे अधिक नहि ऐसा निश्चय करना ।
शंका : किस कारण से दर्शन के मूलभेद छ: ही है ?
समाधान : देवता तथा तत्त्व के भेद से दर्शन के छ: भेद है। यहां "देवा एव देवताः” व्युत्पत्ति से देव को स्वार्थ में “ता” (तल्) प्रत्यय लगकर "देवता" शब्द बना है । प्रमाणो से उपपन्न परमार्थ से सत्य अर्थो को “तत्त्व” कहा जाता है। "देवता" तथा "तत्त्व" शब्दो का द्वन्द्वसमास हो के 'देवतातत्त्वानि' पद बना है। वे देवता और तत्त्व के भेद से छः दर्शन है - ऐसा अन्वय करना ।
इसलिए यहाँ यह अर्थ होता है - जिस कारण से देवता तथा तत्त्व के भेद द्वारा दर्शनो के मूलभेद छ: ही होते है। उस कारण से छ: ही दर्शन यहां कहे जायेंगे । परन्तु उत्तरभेद की अपेक्षा से अधिक दर्शन नहीं कहे जायेंगे। इससे पहले के श्लोक में "सर्व" शब्द का ग्रहण होने पर भी छः ही दर्शनो के कहने के लिये प्रतिज्ञा की गई है, ऐसा जानना | ॥२॥
अथ षण्णां दर्शनानां नामान्याह
अब छः दर्शनो के नाम कहते है ।
(मूल लो.) बौद्धं नैयायिकं सांख्यं जैनं वैशेषिकं तथा । जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो ।। ३ ।।
श्लोकार्थ : बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जैमिनि ये (छ:) दर्शनो के नाम है।
बुद्धाः सुतास्ते च - 1 सप्त भवन्ति । विपश्यी १ शिखी २ विश्वभूः ३ क्रकुच्छन्दः ४ काञ्चनः ५ काश्यपः ६ शाक्यसिंहश्चेति ७ । तेषामिदं दर्शनं बौद्धम् । A-52 न्यायं न्यायतर्कमक्षपादर्षिप्रणीतं
(A-51-52 ) - तु० पा० प्र० प० ।
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