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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३
ग्रन्थं विदन्त्यधीयते वेति नैयायिकास्तेषामिदं दर्शनं नैयायिकम् । A-53 संख्यां प्रकृतिप्रभृतितत्त्वपञ्चविंशतिरूपां विदन्त्यधीयते वा सांख्याः । यद्वा तालव्यादिरपि शांख्यध्वनिरस्तीति वृद्धाम्नायः । तत्र शंखनामा कश्चिदाद्यः पुरुषविशेषस्तस्यापत्यं पौत्रादिरिति गर्गादित्वात् यञ्प्रत्यये शांख्यास्तेषामिदं दर्शनं सांख्यं शांख्यं वा । जिना ऋषभादयश्चतुर्विंशतिरर्हन्तस्तेषामिदं दर्शनं जैनम् । एतेन चतुर्विंशतेरपि जिनानामेकमेव दर्शनमजनिष्ट, न पुनस्तेषां मिथो मतभेदः कोऽप्यासीदित्यावेदितं भवति । नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा एव वैशेषिकं, विनयादिभ्य इति स्वार्थ इकण् । तद्वैशेषिकं विदन्त्यधीयते वा तद्वेत्त्यधीत इत्यणि वैशेषिकास्तेषामिदं वैशेषिकम् । जैमिनिराद्यः पुरुषविशेषस्तस्येदं मतं जैमिनीयं मीमांसकापरनामकम् । तथाशब्दश्चकारश्चात्र समुच्चयार्थो । एवमन्यत्राप्यवसेयम् । अमूनि षडपि दर्शनानां नामानि । अहो इति शिष्यामन्त्रणे । आमन्त्रणं च शिष्याणां चित्तव्यासङ्गत्याजनेन शास्त्रश्रवणयाभिमुखीकरणार्थमत्रोपन्यस्तम् ।।३।।
टीकाका भावानुवाद :
सुगत सात है। (१) विपश्यी, (२) शिखी, (३) विश्वभू, (४) क्रकुछन्द, (५) काञ्चन, (६) काश्यप, (७) शाक्यसिंह। ये सुगतो का दर्शन वह बौद्धदर्शन । अक्षपाद ऋषि प्रणित न्याय - तर्क से पूर्ण ग्रंथको जो जानता है अथवा पढता है उसे नैयायिक कहा जाता है। वे नैयायिको का दर्शन नैयायिक दर्शन कहलाता है। प्रकृति इत्यादिक २५ तत्त्वो की संख्या को जो जानता है अथवा पढता है वे सांख्य कहलाते है। “शांख्य" इस प्रकार तालव्य “श”कार वाला पाठ भी वृद्ध परंपरा से सुनाई देता है । उसमें शंख नाम के आदि पुरुष की संतति = पुत्रपौत्रादि (गर्गादित्वात् से 'यञ्' प्रत्यय लगने से) "शांख्य" कही जाती है। उनके दर्शन को शांख्य या सांख्य दर्शन कहा जाता है। जिनो के अर्थात् ऋषभादि से श्री महावीर पर्यन्त चौवीस अरिहंतो के दर्शन को “जैनदर्शन” कहा जाता है। इससे चौवीसो जीनेश्वर का एक ही दर्शन है। परन्तु उसमें परस्पर कोई भी मतभेद नहीं है। वह सिद्ध होता है । नित्यद्रव्य के अंदर (समवाय-संबंध से ) रहनेवाले और अन्त्य (अर्थात् जिसकी अपेक्षा विशेष नहीं है) वे विशेष कहलाते है और "विशेषा एव" इस व्युत्पत्ति से विशेष को “विनयादिभ्यः” (सि.है.७/२/१६९) सूत्र से स्वार्थ में "इकण" प्रत्यय लगके वैशेषिक बनता है अथवा वह विशेषो को जो जानता है या पढता है वह वैशेषिक । उनका दर्शन वह वैशेषिक दर्शन ।
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जैमिनि आद्यपुरुषविशेष है । उनका जो मत वह जैमिनिदर्शन । उसका दूसरा नाम (३०) मीमांसादर्शन है। श्लोक में "तथा" और "च" कार समुच्चयार्थक है । अहो शिष्य के आमंत्रण में है । आमंत्रण वाचकपद शिष्यो को दूसरे कार्यों में चित्त लगा हो, उसका त्याग कराके शास्त्र श्रवण के अभिमुख करने के लिए उपन्यास किया है ॥ ३॥
(३०) मीमांसक दर्शन के दो भेद है । (१) पूर्व मीमांसा, (२) उत्तर मीमांसा । उसमें पूर्व मीमांसा वह जैमिनिदर्शन और उत्तर मीमांसा वह वेदांतदर्शन ।
(A-53) तु० पा० प्र० प० ।
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