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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
क्योंकि शब्द आकाश का गुण हैं । काल और दिशा भी एक, नित्य, अमूर्त और विभुद्रव्य हैं । काल द्रव्य की सिद्धि प्रस्तुत ग्रंथ में अनुमान से की हैं । दिशा एक होने पर भी उपाधि के भेद से उसके दस प्रकार होते हैं । आत्मा नित्य, अमूर्त और विभु द्रव्य हैं । वैशेषिक मतानुसार आत्मा अनेक हैं । मन नित्य है, परमाणु रूप है और अनेक हैं । प्रत्येक शरीर में एकएक मन रहता हैं ।(१४५) __(२) गुण : जो द्रव्याश्रित हो, गुणरहित हो, उपरांत संयोग और विभाग का कारण बनने में दूसरो की अपेक्षा रखता है वह गुण हैं ।(१४६) गुण पञ्चीस हैं । रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रवत्व और वेग ।।१४७) ये तमाम गणो का भेदसहित स्वरूप विस्तार से प्रस्तत ग्रंथ के श्लोक ६२-६३ की टीका में दिया हैं ।
(३) कर्म : जो द्रव्याश्रित हो, गुणरहित हो और संयोग-विभाग का कारण बनने में दूसरो की अपेक्षा न रखता हो, उसे कर्म कहा जाता है ।१४८) उसके पाँच प्रकार हैं । उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन।
(४) सामान्य : अनेक व्यक्तिओं में (वस्तुओं में) जो एकत्वबुद्धि होती हैं उसका कारण उन व्यक्तियों में रहा हुआ एक सामान्य हैं । सामान्य एक और नित्य हैं । सामान्य के दो प्रकार हैं - पर सामान्य और अपर सामान्य । सत्ता पर सामान्य हैं और द्रव्यत्व इत्यादि अपर सामान्य है ।(१४९)
“यह सत् है, यह सत् है" - ऐसे प्रकार के अनुगताकारक ज्ञान का जो कारण बनता है, उसे सत्ता (पर) सामान्य कहा जाता हैं । सत्ता द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन पदार्थों में ही रहती हैं । सत्ता सामान्य रूप ही है, विशेषरूप नहीं है । क्योंकि वह अनुगताकारक बुद्धि में ही कारण बनती है परन्तु व्यवच्छेदबुद्धि का कारण नहीं बनती है । जब कि, द्रव्यत्व अपर सामान्य है । द्रव्यत्व सामान्यरूप भी है और विशेषरूप भी है । क्योंकि वह नौ द्रव्यो में “यह द्रव्य है" ऐसी समानाकारक बुद्धि कराता है और सभी द्रव्यो को अन्य पदार्थो से व्यावृत्त भी करता है । सामान्य, विशेष और समवाय में सत्ता नहीं रहती हैं। क्योंकि, सत्ता जिसमें रहे उसमें समवाय संबंध से रहती है । सामान्यादि तीन और अभाव में सत्ता मानने से जो
अनवस्थादि आपत्तियाँ आती है, उन आपत्तियों की स्पष्टता श्री उदयनाचार्य ने बताये हुए छ: जाति बाधको की चर्चा करते हुए प्रस्तुत ग्रंथ के श्लोक ६५ की टीका में की हैं ।
(५) विशेष : नित्य द्रव्य में रहनेवाला अन्त्य 'विशेष' है । प्रत्येक परमाणुओं को, आत्माओं को और मनो को अपने-अपने विशेष होते हैं। विशेष के आधार पर एक परमाणु का दूसरे परमाणु से, एक मुक्तात्मा का दूसरे मुक्तात्मा से और एक मन का दूसरे मन से भेद होता हैं ।१५०)
(६) समवाय : अयुतसिद्ध आधार - आधेयभूत पदार्थो के “यह इस में है" इत्याकारक प्रत्यय में कारणभूत संबंध समवाय कहा जाता हैं ।(१५१)
145. षड्दर्शन समुच्चय श्लोक-६१ (टीका) । 146. द्रव्याश्रयी अगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्षं इति गुणलक्षणम् (वै.सू. १
१- १)। 147. षड्.समु. ६२-६३ । 148. एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षं कारणमिति कर्मलक्षणम् (वै.सू. १-१-१७) । 149. सामान्यं द्विविधं परमपरं चानुवृत्तिप्रत्ययकारणम् (प्रशस्तपादभाष्य-उद्देशप्रकरण) नित्यमेकमनेकानुगतम् (तर्कसंग्रह) । 150. अस्मद्विशिष्टानां योगिनां नित्येषु तुल्याकृतिगुणक्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्ममनस्सु चान्यनिमित्तासम्भवाद् येभ्यो निमित्तेभ्यो विलक्षणोऽयं विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययव्यावृत्तिः, देशकालविप्रकर्षे च परमाणौ च स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च भवति, तेऽन्त्या विशेषाः । (प्रशस्तपादभाष्य) । 151. षड्.समु. ६६ । अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः सम्बन्धः स समवायः। (प्रशस्तपादभाष्य)।
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