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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
इस व्युत्पत्ति से उनके (भगवानके) दर्शन की त्रिभुवनपूज्यता को कहते हुए त्रिभुवनस्वामी श्रीवर्धमानस्वामी की त्रिभुवनपूज्यता को सुतरां (सुयोग्य रुपमें) प्रकट करते है । (अर्थात् जिनका दर्शन लोगो के लिए पूजनीय हो वह तो पूजनीय होता ही है, यह समजा जा सकता है ।) इस प्रकार (भगवानका) पूजातिशय प्रकट किया । ('जिन' पद द्वारा भगवान का अपायापगमातिशय सूचित किया है ।) रागद्वेषादि शत्रुओ को जो जीतता है वह जिन । (वह जिनको नमस्कार करके..... इस अनुसार “नत्वा" के साथ अन्वय करना ।) इस विशेषण के द्वारा “अपायापगम" अतिशय सूचित किया है।
स्यात् / कथंचित् पद सहित बोलना वह स्यावाद । अर्थात् सर्वदर्शन को संमतवस्तु के सद्भुत अंशो का परस्पर सापेक्ष रुप में कथन करना वह स्यावाद । इस प्रकार सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सामान्यविशेष, अभिलाप्य-अनभिलाप्य इत्यादि उभयात्मक धर्मो को सापेक्ष रुप में "स्यात्" पद से लांछित करके बोलना वह स्याद्वाद - अनेकांत कहा जाता है। (कहने का आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थ अनंतधर्मात्मक होते है। द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा सर्व पदार्थ नित्य है और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा अनित्य है। इसलिए "स्यात्" पद से लांछित करके "सर्वे भावा कथंचित् नित्यः स्यात् कथंचित् अनित्यः स्यात्" ऐसा कथन करना वह अनेकांतता को सूचन करता है।) __ शंका : परस्पर विरुद्ध प्ररुपणा करते हुए सर्वदर्शनो के (अपने-अपने) इच्छित वस्तु के अंश सद्भूत (यथार्थ) किस प्रकार संभवित है ? कि जिससे इस पदार्थो का सापेक्षरुप में स्याद्वाद = सत्प्रवाद = सत्कथन किया जा सके?
समाधान : चूं कि, सर्वदर्शन अपने अपने मत की भिन्नतासे परस्पर विरोधी है, तो भी उनके द्वारा कहे गये तत् तत् वस्तु के जो (अंश) सापेक्ष हो वे (अंश) यथार्थता को प्राप्त करते है। जैसे कि बौद्धोने सर्ववस्तुओ को अनित्य माना है, सांख्यदर्शनवाले आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते है, नैयायिको तथा वैशेषिकोने नित्यअनित्य, सत्-असत् तथा सामान्य-विशेष को परस्पर सर्वथा भिन्न माना है।
मीमांसक लोग वस्तु को भिन्न-अभिन्न, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, सामान्य-विशेष स्वरुप मानकर भी (कथन करते समय) "स्यात्" पद का प्रयोग नहीं करते और शब्द को सर्वथानित्य मानते है! ___ कोई कोई काल, स्वभाव, नियति, कर्म, पुरुषार्थ इत्यादि को जगत का कारण मानते है। शब्द-अद्वैतवादि जगत को शब्दमय, ब्रह्म - अद्वैतवादि जगत को ब्रह्ममय तथा ज्ञान -- अद्वैतवादि जगत को ज्ञानक्षणरुप मानते है।........ इत्यादि जिन जिन वस्तु के अंश अन्य दर्शनवालो के द्वारा स्वीकृत होते है वे सर्व भी सापेक्ष होने पर परमार्थ सत्यता को प्राप्त करते है। परन्तु परस्पर निरपेक्ष ऐसे वे एक दूसरे की बात का खण्डन करते हुए आकाशकुसुम की भांति आचरण करते है । ('नभ-नलिनं इव आचरन्ते इति नभनलिनायन्ते' सिद्ध हैम ३-४-२६ सूत्र से "कयङ्' प्रत्यय लगता है।) अर्थात् आकाशकुसुम
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