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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १
कहे हुए तथा नहीं कहे हुए सभी बौद्ध आदि दर्शनो के और (१) संभव तथा ( २ ) औतिह्य को प्रमाण माननेवाले चरक इत्यादिक के मतो का उच्छेद करनेवाला वचन वह स्याद्वाददेशक, ऐसा भावार्थ जानना। (इससे स्वयं फलित हो जाता है कि श्रीजिनेश्वर परमात्मा का वचन सर्व अन्यदर्शनो का खण्डन करनेवाला होने से जिनमत के सिवा अन्य सर्व दर्शन हेय है ।)
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जिनं नत्वा मया सर्वदर्शनवाच्योऽर्थो निगद्यत इत्युक्तं ग्रन्थकृता । अत्र च नमनक्रिया प्राक्कालसंबन्धिनी क्त्वाप्रत्ययस्य प्राक्कालवाचकत्वात्, निगदनक्रिया तु वर्तमानजा । ते चैकेनैव ग्रन्थकृता क्रियमाणे नानुपपन्ने, अपरथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । न चैवं भिन्नकालयोः क्रिययोरेककर्तृकता बौद्धमते संभवति, तेन क्षणिकवस्त्वभ्युपगमात् । ततः कश्चिद्बौद्धमतस्य प्रस्तुतग्रन्थस्यादावुक्तत्वेनोपादेयतां मन्येत । तन्निवारणाय प्रागुक्तविशेषणसंगृहीतमपि बोद्धनिरसनं पुनरिह सूचितं द्रष्टव्यम् । एतेषां परदर्शनानां निरसनप्रकारो ग्रन्थान्तरादवसेयः । तदेवं जिनस्य विशेषणद्वारेण सत्यदर्शनतां सर्वपरदर्शनजेतृवचनतां चाभिदधताखिलान्यदर्शनानां तां जैनदर्शनस्योपादेयता सूचिता मन्तव्या । ततो नास्माद्ग्रन्थकारात्सत्यासत्यदर्शनविभागानभिज्ञानामप्यपकारः कश्चन संभवतीति, तद्विभागस्यापि व्यञ्जितत्वात् ।
टीकाका भावानुवाद :
"जिनं नत्वा मया सर्वदर्शनवाच्योऽर्थो निगद्यते" इस अनुसार जो ग्रंथकार श्री के द्वारा कहा गया है, वहां नमनक्रिया प्राक्काल संबंधित है। क्योंकि, " क्त्वा" प्रत्यय प्राक्काल का वाचक है । परन्तु निगदनक्रिया वर्तमानकालीन है। (एक क्रिया करके दूसरी क्रिया करनी हो तब "क्त्वा" प्रत्यय का प्रयोग होता है। इसलिए प्राक्काल की क्रिया उसके बाद होनेवाली क्रिया को सापेक्ष होने के कारण नमनक्रिया प्राक्कालकी और निगदनक्रिया वर्तमानकालीन होने पर भी) दोनो क्रियाएं एक ग्रंथकर्ता के द्वारा की हुई मानने से असंगति नहीं है, यदि दोनो क्रियाका कर्ता एक नहीं हो सकता, ऐसा माना जाये, तो सभी (३) व्यवहार का लोप होने का प्रसंग आयेगा ।
(१) एक वस्तु की सत्ता सिद्ध होने से दूसरे अर्थ की सत्ता माननी ही पडेगी, ऐसे अर्थ को संभव प्रमाण कहा जाता है। जैसे कि "यहां मनभर (२० किलो) अनाज है।" तो मानना ही पडेगा की उसमें "सैर" (५०० ग्राम) अनाज भी है ही । (२) ऐसा लोग कहते आये है, परंतु वह कहनेवाली जो आप्त व्यक्ति थी, उसका कोई नामोनिशान नहीं है, उस प्रवाद की परंपरा औतिह्यप्रमाण कहा जाता है । जैसे कि..... "इह वटे यक्षः "
(३) जैसे कि "बैठकर खाता है" ऐसा प्रयोग होता व्यवहार में दिखाई देता है । "आसित्वा भुङ्कते " ऐसे प्रयोग में "बैठने की क्रिया प्राक्कालकी और खानेकी क्रिया वर्तमानकालीन होगी। यहां यदि दो क्रियाओ के दो कर्ता मानोगे तो एक बैठने की क्रिया करेगा और एक-दूसरा खाने की क्रिया करेगा, ऐसा मानने की आपत्ति आयेगी और एक ही व्यक्ति "बैठकर खाता है" वह व्यवहार के उच्छेद की आपत्ति आयेगी ।
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