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समय देशना - हिन्दी
१६ उपयोग की दशा कैसी है? ऐसा कहनेवाला भी पर समयी है। जो समयसार का व्याख्यान कर रहा है, उस समय वह भी परसमयी है। जो समयसार में लीन हो रहा है, वह स्वसमयी है। अब समझ में आयेगा कि क्यों योगी कहते हैं कि तुम तो माथा ही टेको, निश्चय स्वानुभुति तो रत्नत्रय धारण करने पर ही आयेगी। अब घर में हाय-हाय नहीं करना, जैसा थाली में आ जाये, जैसा मिले, भोजन कर लेना और अपने स्वसमय में लीन रहना। अनंत बार खाया, अब तो स्वसमय की रोटी बनवाना है और उसी में लीन होना है। - || भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
qqq जीवो चरित्तदसणणाणहिउ तं हि ससमयं जाण ।
पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं ॥ २ स.सा. ॥ यहाँ पर आचार्य कुन्द-कुन्द ने 'समयप्राभृत' ग्रन्थ में स्व समय व पर समय का व्याख्यान प्रारंभ किया। जो जीव दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित है, वह स्वसमय में है और जिसका पौद्गलिक कर्मों में स्थित भाव है, वह परसमय में है। कैसी है यह योगी की परमदशा ? जिन्होंने योग के उपयोग का भी निरोध किया हो। जिन्होंने व्रत,समिति, गुप्ति के पालन के विकल्प का ही विकल्प छोड़ दिया हो। जिन्होंने कर्मों की १४८ प्रकृतियों के बंध, उदय, संक्रमण आदि के विकल्प से अपने आपको दूर हटा लिया हो । जिसने संक्लेश स्थान तो छोड़े, विशुद्धिस्थान के विकल्प का ही त्याग कर दिया हो। और जहाँ विशुद्धि स्थान की प्राप्ति का भी विकल्प न हो, ऐसा परम वीतरागी वह निर्ग्रन्थ श्रमण है । वे श्रमण ही ध्रुव, अचल, अनुपम दशा में लवलीन, आनंदकन्द, ज्ञानघन स्वचतुष्टय में विराजते हैं। जिन्हें चतुष्टय के भान का भी भान नहीं है, वे परम निर्वाण को प्राप्त होनेवाले परमयोगीश्वर हैं। अमल, विमल, अखण्डित, चिद्रूप, भगवत् स्वरूप की प्राप्ति के विकल्प को जिन्होंने दूर से ही छोड़ दिया हो। वे तो अमल में लीन हैं, वे तो विमल में विलीन हैं, स्वयं में स्थित हैं। वे हि स्वसमयी हैं । मैं बंधस्थान को प्राप्त हूँ, मुझे विशुद्धि स्थान की वृद्धि करना है। ऐसे विकल्पों में जीनेवाला जीव परसमयी है। दीक्षा लेना है, दीक्षा देना है। ये विकल्प भी तुझे दीक्षा में नहीं रहने दे रहे हैं। जब दीक्षा में निवास करेगा, तो इन विकल्पों से भी तू अपने आपको दूर पायेगा।
___ समयसार यानि, "मुनि का स्वभाव" | पिच्छि कमण्डलुधारी मुनिराज कैसे होते हैं, वो "प्रथमानुयोग'' से आपको मिल जायेगा। २८ मूलगुणों का पालन कैसे करते हैं, ये आपको 'मूलाचार'' में मिल जायेगा। और किन-किन प्रकृतियों के क्षय, क्षयोपशम से योगी होते हैं, यह ‘‘गोम्मटसार'' में आपको मिल जायेगा । परन्तु मुनि मुनि में कैसे होते हैं, ये 'समयसार' में सुनना । इस ग्रन्थ में मुनि के द्रव्यस्वरूप, का मुनि की पर्याय का किंचित भी वर्णन नहीं है। इस ग्रन्थ में तो मुनि की परिणति का वर्णन है। क्योंकि पर्याय के मुनि तो हमारे चाक्षुष हैं, परन्तु परिणति के योगीश्वर चाक्षुष नहीं हैं, वे तो स्वस्थित हैं। ऐसी स्वस्थित दशा का वर्णन आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द देव कर रहे हैं।
हे जीव ! दर्शन, ज्ञान, चारित्र । वो दर्शन क्या है ? दर्शन क्रिया निज में ही हो। वो ज्ञान क्या है ? ज्ञप्ति दशा निज में ही है। चरित्र क्या है ? चरित्रानुभूति स्वयं में ही है। जहाँ स्वयं को ही निहारे, स्वयं को ही जाने, स्वयं में ही रमण करे। इसका नाम स्वसमय है । जहाँ व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्र पर भी लक्ष्य है, परसमय है। तो कैसे अपने आप में स्थिर रहते होंगे वे परमयोगीश्वर ? अब पकड़ना है उस योगी की दशा
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