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समय देशना - हिन्दी
२६ नहीं आई और पर्याय को बद्ध कह दिया, 'बद्ध' शब्द पर्याय के लिए दिगम्बर आम्नाय के किसी भी आगम ग्रन्थ में नहीं आया । व्यतिरेकी, क्रमवर्ती, क्रमभावी, क्रमनियमित ये तीन शब्द का प्रयोग ही जिनागम में है । अब मुझे समझना है कि कल जो सूत्र दिया आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने क्रमप्रवृत्ति, अक्रमप्रवृत्ति । ज्ञान की दृष्टि से देखें तो मति श्रुत ज्ञान की धारा क्रम प्रवृत्ति है और कैवल्य की धारा अक्रम प्रवृत्ति है । मति-श्रुतज्ञान क्रमभावी ज्ञान है, क्रम-क्रम से ही प्रवृत्ति होती है और केवलज्ञान युगपत् होता है। आत्मा में हर्ष-विषाद दो गुण हैं । जब प्रसन्नता होती है, उसी समय में उसी काल में आपके अन्दर में क्या विषाद भी होता है ? ध्यान दो, जिस क्षण में विषाद है, उस क्षण में हर्ष भी है क्या ? तो जिस क्षण में हर्ष नहीं है, तो हर्ष परिणाम आत्मा के अन्दर है कि बाहर है ? हर्ष-विषाद परिणाम आत्मा के ही अन्दर हैं। अरे ! कितना स्पष्ट विषय है। जब आत्मा के अन्तस् में विषाद पर्याय का उद्भव होता है, उस काल में हर्ष पर्याय नहीं रहती है और जिस क्षण में हर्ष पर्याय होती है, उस क्षण में विषाद पर्याय नहीं रहती है, क्योंकि पर्याय की प्रवृत्ति क्रमवर्ती होती है। एक साथ दो पर्याय नहीं रहती हैं। आत्मद्रव्य में हर्षभाव व विषादभाव एक समय में दोनों नहीं होते। जब विषाद पर्याय होगी, तो हर्ष पर्याय का व्यय होगा। इसी प्रकार से आत्मा में शुभोपयोग की अवस्था होगी, तो अशुभोपयोग नहीं होगा और जब अशुभपयोग की धारा होगी, तब शुभोपयोग नहीं होगा। जब शुभ या अशुभ में से कोई भी एक होगा, तब शुद्धोपयोग नहीं होगा। जब शुद्धोपयोग होगा, उस काल में शुभ व अशुभ भी नहीं होगा । क्योंकि एक समय में एक ही पर्याय रहेगी । परिणामी भोक्ता अशुभ भाव का वेदन करेगा, तत्क्षण में शुभभाव का वेदन नहीं करेगा और जब शुभभाव का वेदन करेगा, तब अशुभ भाव का वेदन नहीं करेगा । क्यों कहा जा रहा है? तब तू स्वसमय में लीन होगा, जब परसमय में लीन नहीं होगा और जब परसमय में होगा, तब स्वसमय में नहीं होगा। जब पौदगलिक औपाधिक भावों में स्थित है, तब परसमय में स्थित है, और चैतनस्वभाव में स्थित है, तब तू स्वसमय में स्थित है। यानी कि आत्मा, आत्मा ही है और उस आत्मा की ही धारा बन रही है, लेकिन उस आत्मा के अन्दर में अनंतधाराएँ हैं , अनंतगुण हैं। जिस गुण का एक बार भी वेदन कर रहा होगा, उस गुण का ही वेदन करेगा, अन्य गुण का वेदन उस क्षण नहीं करेगा, क्योंकि उपयोग सत्ता में अनंत रह सकते हैं, परन्तु उपयोग में एक ही रहेगा। ऐसा कभी नहीं होगा कि हमारी दो धाराएँ एकसाथ चल रही हों।
आज तीसरे नम्बर की मधुर गाथा है। उस गाथा को समझें, इसके पहले आचार्य जयसेन स्वामी की टीका को देखें।
शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध-बुद्ध स्वभाव निश्चय प्राणों से युक्त है, वह जीव है तथा अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से क्षायोपशमिक अशुद्ध भावप्राणों से, असद्भूत व्यवहारनय से यथासंभव द्रव्यप्राणों से जीता है, जियेगा और जिया था, उसका नाम जीव है । ये व्यवहार जीव है। निश्चय से शुद्ध चैतन्य प्राणों से युक्त जो है, वह त्रैकालिक जीव है। ऐसा जीव जो द्रव्यप्राण और भावप्राण चैतन्य प्राणों से जो जिया था, जी रहा है, वही जीव चारित्र, दर्शन, ज्ञान में स्थित होता है। उस काल में वही जीव निश्चय से स्वसमय जानो। जिस समय आत्मा की परिणति अभेद रत्नत्रय से मंडित है, यह है वही स्वसमय है। लेकिन बिना भेद-रत्नत्रय के अभेद-रत्नत्रय में लीन होता नहीं है इतना विश्वास रखना, नहीं तो आप सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र का चिन्तन कर रहे थे, उस चिन्तन में ही आपने अपने आपको स्वसमय मान लिया। देखो, मुझे इस धारा का भी
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