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समय देशना - हिन्दी ग्रंथ में निर्ग्रन्थ स्वरूप का वर्णन है, लेकिन ग्रन्थ निर्ग्रन्थ नहीं है। स्पष्ट तत्त्व कहना पड़ेगा और तत्त्व को कहने में राग सता रहा है तो विश्वास रखो, आप असत्य बोल रहे हो। आप विपरीत कहोगे, सत्यार्थ नहीं कहोगे। आपको अपने पक्ष का अभाव करना आना चाहिए। हे पक्षी ! मैं तेरे से पूछता हूँ पंखों से तू उड़ता अवश्य है, लेकिन जिन पंखों से तू उड़ान भरता है, उन पंखों को ही तू अपने हृदय से चिपकाकर बैठ जा, क्योंकि वे तुम्हें उड़ाते हैं, तो निश्चय ही उड़ नहीं पायेगा। जब तू पंखों को ऊपर-नीचे करता है, तभी गगन में उड़ पाता है। अहो मुमुक्षु ! इस समयसार की प्राप्ति चाहिए तो पंखों से उड़ान भरनी ही पड़ेगी। समयसार एक पक्ष हो सकता है, परन्तु पक्ष में समयसार नहीं है। निज शुद्धात्मा मेरा पक्ष है, सपक्ष पक्ष है। समयसार ग्रंथ पक्ष तीत है। जब तक इस ग्रंथ का भी पक्ष रहेगा, तब तक तू निज आत्मा से विपक्ष ही है।
हे ब्रह्मचारी ! तेरा भेष, तेरी मुद्रा कल्याण के लिए पक्ष है। लेकिन ध्यान रखना, विपक्ष है । ये चिद्रूप ही तेरा सपक्ष है। इस भेष में भी तू राग करेगा, तो अगली पर्याय में कोई मनुष्य ही बनेगा, तू सिद्ध नहीं बनेगा। किसी मंदिर में तेरा पक्ष है, परन्तु निज मंदिर को निहारने की दृष्टि नहीं है, तो देव बन सकता है, पर सिद्धालय में नहीं पहुँच सकता। मंदिर में व्यन्तर बनकर रह सकता है। कोई चैत्यालय में व्यंन्तर हो गया, वहाँ चमत्कार प्रारंभ हो गये । वे अज्ञानी, उन चमत्कारों को सत्य कहकर उसी को वस्तुस्वरूप मान बैठे, वह तो परकृत पर की प्रभावना है । उस देव का ऐसा ही क्षयोपशम है कि वह आपके पुण्योदय का ही अतिशय दिखा सकता है, पर वह देव निरतिशय वीतरागी भगवान्आत्मा स्वरूप नहीं है। ये समयसार ग्रन्थ है, इसको निर्मल भाव से समझना, अन्यथा शुष्क हो जाओगे । निर्ग्रन्थ का पक्ष भी निर्ग्रन्थता से शून्य है। निर्ग्रन्थ भेष है, इसका पक्ष तेरे अन्तःकरण में है। पर निर्ग्रन्थ भेष का पक्ष है, यह पक्ष की भी गाँठ है। निर्ग्रन्थ का राग भी सग्रन्थ भाव है। सराग अवस्था में ये दुनियाँ के भाव हैं। वीतराग दशा में परभाव शून्य है।
आत्मा स्वभावं परभाव भिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् ।
विलीनसङ्कल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥१०॥ आत्मा का स्वभाव तो परभावों से भिन्न है । जब परभावों से भिन्न है, तो कहाँ तू प्रपंचों में पड़ा है ? कहीं-न-कहीं जीव निज स्वभाव से बिल्कुल च्युत हो रहा है । मैं पुरुष हूँ, आप पुरुष हो। किसी पुरुष का क्षयोपशम विशेष हो जाये, उसके नाम से भीड़ लग जाये, उसकी आम्नाय प्रारंभ हो जाये, तो पुरुष वह पुरुष ही रहेगा, वह परमात्मा नहीं होगा। आज तक दिगम्बर आम्नाय जिस बात से सुरक्षित थी, वह भी अब विकार की ओर जा रही है। इस जैनदर्शन में उपासना परमात्मा मात्र की है, पुरुष की नहीं है।
__ 'अस्ति पुरुषचिदात्मा' । वह चैतन्य आत्मा की आराधना है। लोक पुरुष यानी आदमी, उस आदमी की पूजा हमारे जिनशासन में नहीं है । न उसकी बातों को स्वीकार किया गया है । जगत् में तो एक-एक साधु के नाम से मंदिर बने । जाओ महाराष्ट्र में, वहाँ भगवान् के मंदिर कम, बाबा के मंदिर ज्यादा मिलेंगे। कहीं इस बाबा का मंदिर, कहीं उस बाबा का मंदिर । यह जैनदर्शन सुरक्षित था अभी तक। इतने लम्बे समय तक। वर्द्धमान स्वामी के निर्वाण के बाद भी, श्रमण संस्कृति जीवित रही है । वह अमुक बाबा के बल पर नहीं रही, बाबाओं से हटकर रही है,इसलिए सुरक्षित रही है । बाबाओं के वाह-वाह में जो चला जाता है, वह असुरक्षित हो जाता है। यह तीर्थंकर मात्र की परम्परा को मानने वाली संस्कृति है।
चौरासी पाहुड़ जिस योगी ने लिखे हों, उस योगी ने अपने नाम का कोई सम्प्रदाय नहीं बनने दिया। वह महान था, उसके नाम पर तो विराट सम्प्रदाय होता, उनका कोई पंथ नहीं है, सम्प्रदाय नहीं है। जो आज
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