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समय देशना - हिन्दी
२२६ सुलझा कर चलना है, क्योंकि यही मौका है सुलझने का, छठवें काल में कोई मौका नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि आप सभी के प्रति एक भाव रखते हो। हमने कहा यह यहाँ समझ में नहीं आयेगा, हमारे साथ चलना सिद्धालय की ओर तुम टेड़े होकर चलोगे तो निगोदिया बनकर चलना। जो सीधे चले, वे सिद्ध हो गये और जो टेड़े चले वे निगोदिया बन गये।
__ हे ज्ञानी आत्माओ ! अभी तुम संभले हो, समय के साथ हो । परिणामों के साथ हो, मैं तो भावना भाता हूँ, कि इस लोक में त्यागी ही नहीं, कोई भी जीव हो, ब्रेन हेमरेज होकर मृत्यु न हो । ये युवा पर्याय भी शाश्वत नहीं है । एक माला ज्यादा फेरना आज से । मोक्ष के लिए नहीं, क्योंकि मोक्ष तो चाहने से मिलता नहीं है,
मोक्षेऽपि यस्य नाकांक्षा, स मोक्षमधिगच्छति ।
इत्युक्तत्वाहितान्वेषी कांक्षां न क्वापि योजयेत् ।।२१।। स्वरूप संबोधन ।। मोक्ष भी तभी मिलेगा, जब मोक्ष की आकांक्षा चली जायेगी। जब मोक्ष की आकांक्षा करने से मोक्ष नहीं मिलता. तो रागी-भोगी के साथ आकांक्षा करने से कैसे मोक्ष मिलेगा? फिर माला किसलिए? अन्तिम समय में मैं मरते न मरूँ । अन्तिम समय में चेतना के साथ मरूँ । इसलिए माला फिरवा रहा हूँ। "णमो अरहंताणं'। जाग्रत मरण करो। जिसने जाग्रत मरण कर लिया, उसे नियम से मोक्ष होना ही है। 'मूलाचार' में आचार्य वट्टकेर स्वामी ने लिखा है 'णमो अरहंताणं' की जाप करनेवाला नियम से विशुद्ध समाधि को प्राप्त होता है। पूरा णमोकार की जाप के साथ, एक माला णमो अरहंताणं की जाप करना । सहज, शीतल भाव से करना।
प्रश्न- 'चलते फिरते भी पढ़ सकते है क्या ? उत्तर - चलते-फिरते पाप करने के लिए सब छूट है और चलते-चलते टकरा गये तो, फिर ? यह अज्ञानी की भाषा है, जिन्होंने भक्तामर, णमोकार, पूजा छुड़वा दी। हमें आगम की बात मानना है । मैं देव की बात नहीं मानता। तू देव है, परमेष्ठी नहीं है। तेरा झूठ बोलने का त्याग नहीं है। मंदिर में भगवान की पूजा करने वाले कम हैं, माँगने वाले ज्यादा हैं । देवों के पास भिखारी जाते हैं, भक्त नहीं।
विध्नौधाः प्रलयं यान्ति, शाकिनी-भूत-पन्नगाः ।
विषं निर्विषतां याति, स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥ भक्त गुणों में अनुरक्त होता है, भिखारी विषयासक्त होता है। जिन्हें आत्मबोध नहीं है, वे अरहन्त भगवत् के द्वार पर भी आकांक्षा से भरकर आते हैं, जिनदेव गुरु की वाणी नहीं मानते । देव के नाम पर भयभीत होकर सत्यार्थ मार्ग से भ्रमित होकर दीर्घ संसार की वृद्धि करते हैं। जिनकी भवितव्यता ही खोटी है, उन्हें कौन सुधार सकता है ? सरागी सरागता की ओर ही दौड़ते हैं । अरहन्त की भक्ति से पूर्व संचित कर्मों का क्षय स्वयमेव हो जाता है, यह आगम वचन है। विश्व के सम्पूर्ण विघ्न, शाकिनी, भूत प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं । विषधर का विषय भी निर्विष हो जाता है जिनेश्वर के स्तवन करने मात्र से।
महामंत्र णमोकार की आराधना से सभी अभ्युदय सिद्ध होते हैं । ज्ञानी ! विचार तो कर । जिस मंत्रराज की आराधना से निश्रेयस सुख प्राप्त होता है, यानी मोक्षसुख प्राप्त होता है, उससे क्या संसार के सुखाभास दुर्लभ हैं ? वे तो मिल ही जाते हैं। अहो प्रज्ञ ! स्वप्रज्ञा से विचार कर । जगत की विषयाशक्ति से निज आत्मदेव की रक्षा कर | व्यर्थ में किसी के कहने से देवपूजा, णमोकार, भक्ताम्मर की आराधना,
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