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समय देशना - हिन्दी परन्तु, पुरुषार्थ चौथे गुणस्थान से ही है। यदि मोह व क्षोभ के परिणाम की परिणति पर लक्ष्य नहीं है, चौथा गुणस्थान भी नहीं है ।
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो हो समोत्ति णिद्दिट्ठो ।
मोहक्खोह विहिणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥ प्रवचनसार ॥
मोह, यानी, दर्शनमोह, क्षोभ यानि चारित्रमोह, इन दोनों मोह का अभाव तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि कर लेगा चौथे गुणस्थान में पर क्षोभ यानि चारित्र मोहनीय का परिपूर्ण अभाव चौदहवें गुणस्थान में होगा और सामान्य कथन करेंगे तो बारहवें गुणस्थान में होगा । यथाख्यात चारित्र । आप तो शांतता की अनुभूति करो। चतुर्थ गुणस्थान में भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि को सिद्धान्त शास्त्र राजवार्तिक वीतराग सम्यक्त्व कहते हैं। लेकिन ध्यान दो, वह वीतराग सम्यक्त्व चारित्र अपेक्षा नहीं, दर्शन की अपेक्षा है । लेकिन हे, ज्ञानी ! ध्यान दो, चतुर्थ गुणस्थान की महिमा भी अपरम्पार है। इसके बिना ऊपर प्रवेश होता नहीं, परन्तु उसमें सन्तुष्ट हो मत जाना। उस पर बैठे रहने से कुछ होता नहीं, उसके मिले बिना कुछ होता नहीं, उसमें मिल जाने से कुछ होता नहीं। इसलिए ध्यान दो, अपूर्वकरण परिणाम वहाँ पर भी है। जैसा मिथ्यात्व में कभी अनुभूत नहीं हुआ था, वह अनुभूति चतुर्थ गुणस्थान में लेता है। अपूर्वकरण परिणाम करता है।
आज एक बालक बोल रहा था, कि मुझे तो आनंद आ गया। मैंने पूछा- क्या ? पहला आनंद यह है, कि इतनी शान्ति से उपदेश सुना। दूसरा आनंद यह है, कि जब मैं आपको आहार देने गया था, बड़ा मजा आया । एक वीतरागी के हाथ पर ग्रास रखने से ही आनंद प्राप्त होने लगता है। किसी भी क्रिया में पंचाश्चर्य नहीं होते । जब निग्रन्थ सुकुल श्रावक के घर में प्रवेश करता है, और ऐसी भक्ति से भरा श्रावक जब हाथ पर ग्रास रखता है, तब ऐसी भक्ति के परिणाम स्वरूप श्रावक भी सन्तुष्ट हो जाये, योगी भी सन्तुष्ट हुआ, और पंचाश्चर्य रत्नों की वर्षा प्रारंभ हो जाती है। इतना अनुराग भगवान की पूजा के समय भी नहीं आता जितना कि मुनिराज को आहार देने के समय आता है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती स्वानुभूति लेता है, वह कैसी लेता है? जब आहार कराते समय पंचाश्चर्य हुए, तो आनंदित हुआ, यही तेरी स्वानुभूति शुभोपयोग की अनुभूति है । इस अनुभूति के काल में ही निधत्ति व निकांचित कर्म चूर-चूर होते हैं। कितनी बार रागियों के साथ रोये; यदि रोना भी पड़ जाये, तो वीतरागी की भक्ति में रो लेना । आनन्दाश्रु टपके है; यही आत्मप्रसाद है। यह आचार्य पूज्यपाद स्वामी बोल रहे है। यही आत्माह्लाद है ।
प्रवचन करना पाप नहीं, बहुत पुण्य का काम है, सुनने वाले समझें या न समझें, परन्तु जितनी देर तुम शुद्ध तत्त्व की बात करोगे तब तक स्वात्मस्वाद होता है। मुझे दो समय ही विशेष आनन्द आता है, या तो प्रवचन करूँ, या सामायिक करूँ, वे सुख के क्षण हैं, पर प्रवचन में प्रवचन मात्र होना चाहिए। प्रवचन जगत के कल्याण के लिए किये जाते हैं। जब जगत के कल्याण की बात करेगा, तो स्वकल्याण पर लक्ष्य रखेगा ही, तो स्वयं का कल्याण होगा ही। संतान के प्रति वात्सल्य रखने वाली माँ के आँचल में दूध आ जाता है, ऐसा ही
प्राणी मात्र के प्रति वात्सल्यभाव रखेगा, उसका सर्वांग दुग्धमय हो जाता है। तीर्थंकर के शरीर का रक्त श्वेत क्यों होता है ? सोलहकारण भावना में भावना है प्रवचन वत्सलत्व भावना । प्रवचन करने लग गया, वह महावीर के शासन को आगे ले जाने वाला बन गया। जो उदास हो रहे हैं प्रवचन करने से, उन्हें प्रवचन करना, और क्लास लेना शुरु करना चाहिए ।
'धवला' जी पहली पुस्तक में लिखा है, मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी मंगलभूत होता है, श्रुत का वाचन,
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