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समय देशना - हिन्दी ३२६ श्रुत का श्रवण असंख्यात गुणश्रेणी कर्म की निर्जरा कराता है। 'स्वाध्यायः परम तपः । आपके स्वाध्याय से एक का भी मिथ्यात्व चिग गया, तो आपका प्रवचन करना सार्थक हुआ।
एष ज्ञानधनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः ।
साध्यसाधक-भावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥१५॥ अ.अ.क. ।।
अहो ज्ञानियो ! यह ज्ञानधन नित्य आत्मा का है । नित्य आत्मा ज्ञान धन । पर्यायें बदल जायेंगी, परिणति बदल जायेगी, पर नित्य ज्ञान धन नहीं बदलेगा । हे सागर ! लहरों में ही लहर हैं, धाराओं में ही धारा है, पर सागर वही है, नित्य है । हे सागर ! ध्यान दो, लहरों में ही लहरे हैं, धाराओं में ही धारा है, पर अखण्डध्रुव तो सागर है। हे ज्ञानी ! ज्ञानसागर में नय की लहरें / तरंगें अवश्य हैं, परन्तु ज्ञायकभाव शुद्ध अखण्ड समयसार सागर है। तरंगों में ही तरंगे हैं, लहरों में ही लहरें हैं। पर सागर धौव्य है। ज्ञान की पर्यायों में ही परिणमन है | अखण्ड नीरजी नीरज ज्ञायकभाव ध्रुव एक है। वह सागर है। पानी को देखो, बहते को मत देखो। पानी को देखो, ऊपर-नीचे पर्याय है, परन्तु पर्यायी ध्रुव अखण्ड है। नहीं देखना मुझे लहरों को की धाराओं को, मुझे पानी देखना है । नहीं देखना मुझे परिणाम की कषाय पर्याय, मुझे देखना है ध्रुव धाम ज्ञायक को ।
ऐसा यह ज्ञानघन आत्मा है। कैसे कहोगे कि मन जाता है ? जब योगी यहाँ बैठ जायेगा, तब जा कर बताओ, मन कहाँ जाता है ? परन्तु ऐसा ही तत्त्व रात-दिन चलना चाहिए। पर में तो अघाया जाता है, निज भाता-ही-भाता है। पर में नियम से अघाया ही जाता | लम्बे समय तक आप विषयों में लीन नहीं रह सकते, विश्वास रखिए। कषाय में लम्बे समय तक नहीं रह सकते । पागल हो जाओगे । आपको मस्तिष्क फ्री (निर्विकार) करना पड़ेगा। लेकिन तत्त्व में तुम जीवनभर भी निकाल दोगे, तब भी पागल नहीं होगे, परमात्मा ही होंगे ।
दुनियाँ में सबसे न्यारा ये आत्मा हमारा
भी नहीं कभी पानी में, सूखे नहीं पवन के द्वारा ...
कैसा है आत्मा नित्य है। आत्मा नष्ट नहीं होता। ऐसे ज्ञान धनभगवान - आत्मा की सिद्धि की इच्छा है, तो साध्य-साधक भाव है। द्वैतरूप होने पर भी एक-ज्ञायकभाव का उपासक है, एक ही भाव का उपासक है । द्वैतभाव विसंवादी होता है, अविसंवादी नहीं होता । आत्मा द्वैतस्वभावी नहीं है, आत्मा एकत्व विभक्त चिद्स्वभावी है | अद्वैतभाव ही हमारा स्वभाव है, इसलिए अच्छी तरह से उसकी उपासना करो ।
इस तरह पन्द्रह गाथा पूर्ण हुई। पीठिका की दृष्टि से देखें, तो समयसार पूर्ण हो गया, और आचार्य जयसेन स्वामी की अपेक्षा से चौदह गाथा में पूरी पीठिका समझ में आ जाये, फिर दीवाल तो आप खड़ी करते रहना, और कलश चढ़ाना। परन्तु तत्त्व उपदेश छोड़ना नहीं । यह आचार्य कुन्द कुन्द देव का अपूर्वग्रन्थ है। गहन ग्रन्थ है । आप समझ भी कितना सकते है ? जब स्वयं आचार्य भगवान कुन्दकुन्ददेव ही कह गये वंदित्तु सव्वसिद्धे, धुवमचलमणोवमं गईं पत्ते ।
वोच्छामि समयपाहुड़मिणमो सुयकेवलि भणियं ||१|| समयसार
अनुपम है । अशरीरी बनानेवाला ग्रन्थ है । इसलिए इस परम तत्त्व को समझने के लिए राग और मोह की दशा से आत्मा की रक्षा करना । यही सबको शुभ आशीष ।
॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
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