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समय देशना - हिन्दी
३२४ यदि पाप करने के परिणाम आ रहे हैं, तो यही तेरी पाप दशा है। पाप के परिणाम आये न तो पाप हो गया, प्रवृत्ति में नहीं आया, परन्तु परिणति में तो आ चुका है। प्रवृत्ति शुभ की बनी भी रहे, परन्तु परिणति अशुभ की है। तो प्रवृत्ति कुछ भी नहीं कर पायेगी, वह नीचे ले जायेगी, यह ध्रुव सत्य है, यही समयसार है।
हे ज्ञानियो ! आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी पन्द्रहवें कलश में यह कह रहे हैं, कि अब तुम सबको भूल जाओ। ज्ञान में ही ज्ञान से मिलो। जगत को जानना कठिन नहीं है, जाननहार को जानना कठिन है। इस ग्रन्थ में जगत को जानने की व्याख्या किंचित भी नहीं है। सम्पूर्ण अध्यात्म वाङ्मय में, मात्र जाननहार को जानने की व्याख्या है। शब्दब्रह्म में मत डूबिये । डूबना है तो आत्मब्रह्म में डूबिये । ये आत्म ब्रह्म का विषय है। शब्द ब्रह्म का विषय नहीं है। शब्द ब्रह्म की चर्चा करते-करते अनंत जीव चले गये। यथार्थ मानना जितने गूढवादी हुए हैं, वे गूढ़ में रह जाते हैं । यह गूढ ग्रन्थ है, यह रहस्य ग्रन्थ है। अध्यात्म विद्या यानी कि गूढ विद्या। लोक की सम्पूर्ण विद्याएँ जहाँ समाप्त हो जाती है; वहाँ से इस विद्या का प्रारंभ होता है। क्योंकि हम लोगों ने कमरे में बैठकर इसको देख लिया, इस भवन में भी बैठकर देख लिया, जब बाहर की चर्चा चलती है, तो सभा में हलचल होती है। जब भीतर की बात चलती है, तो सब सामान्य होता है। यमुना, गंगा सबको दिख रही है, पर सरस्वती कहाँ है ? गंगा, यमुना दिख जायेगी, पर सरस्वती अन्दर है। सरस्वती दिखती नहीं है, बहती गंगा है।
आत्मगंगा में लीन होना है, तो बाहरी गंगाओं से दूर होना पड़ेगा। जनश्रुति जनसम्पर्क स्वानुभूति का शत्रु है। गूढ़ विद्या में प्रवेश करना है, तो छुपना सीखो, छपने से घबड़ाओ। भीड़ तो जुड़ जायेगी, पर भीतर नहीं जाने देगी। भीतर जाओगे, तो भीड़ से तिरना पड़ेगा । यह मैं नहीं कह रहा हूँ, भगवान् जिनेन्द्र की देशना है । लोकोत्तराचार में लवलीन होना है, तो लोकाचार से पृथकत्वभाव का चिंतन करना है। एकत्वविभक्त चिद्रूप की अनुभूति में लीन होना है, तो प्रपंचों से दूर होना होगा। जब पंचपरमेष्ठी की आराधना भी आत्माराधना में बाधक है तो. हे ज्ञानी! पाँच पापों की आराधना आत्माराधना का साधन कैसे है? सीधे-सीधे नहीं बोलते लोग। जब पंचपरमेष्ठी की आराधना से परगत तत्त्व बनता है, तो पाँच पापों की लीनता से स्वगत तत्त्व कैसे है ? इसलिए पहले पाँच पाप छोड़ना चाहिए, पंचपरमेष्ठी के चरणों में जाना चाहिए। द्वैत से अद्वैत की ओर चलो। परन्तु विषयों की द्वैतपन को तो छोड़ो आप तो द्वैत भी नहीं हो, अद्वैत भी नहीं हो, विषयों के दूत हो । क्या हो गया आपको आज ? द्वैतभक्ति भगवान की करता है, अद्वैतभक्ति आत्मा की करता है। जहाँ भगवान भी न दिखते हों, आत्मा भी न दिखती हो, उसे क्या कहँ? वह विषयों का ही दुत है। यदि बुरा लगता हो तो छोड़ दो। सत्य क्या है? विश्वास रखना, यह ज्ञान की धारा है। बिना किसी दृष्टान्त के शुद्ध आत्मतत्त्व की चर्चा की व्याख्या हमेशा की जा सकती है, इतना विषय अपने पास है, आत्मप्रवाद-पूर्व इतना विशाल है। लोग कहते हैं न, जब-तक दृष्टान्त नहीं देंगे तब तक समय कैसे पूरा कर पायेंगे? ऐसा नहीं है । मूल तत्त्व को कह दो, यथार्थ मानना, शांतता ही 'साता' है। शान्तता हृदय में नहीं, तो साता किस बात की है ? यही कारण है कि स्वानुभूति के रस का आस्वादन करनेवाला ही परम साता में जीता है। यदि आपको ऐसा वेदन करना हो तो, मैं यह नहीं कहूँगा कि मेरे साथ रहो, मैं यह कहूँगा आप स्वयं अपने साथ रह कर देखो। क्योंकि मेरे साथ रहना यानी द्वैत में चले जाना। शान्तता ही साता हैं, इसकी अनुभूति लेना है, तो मात्र अपने आप में रहना सीखो। अपने साथ यानी कि एकत्व-विभक्त में लीन होना । अखण्ड ज्ञान यही है। परिपूर्ण मोह क्षोभ का अभाव (छद्मस्थ अपेक्षा) बारहवें गुणस्थान में होता है। सामान्य से सातवें गुणस्थान में।
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