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समय देशना - हिन्दी
३२२ कर्मो का सीमेन्ट झरने लग जाता है। आर्द्रता को क्षीण कीजिए। जब स्वात्मानुभूति में लवलीन होता है, तो नो कर्म शान्त हो जाते हैं, द्रव्यकर्म तो अपने आप ढीला होगा, भावकर्म शान्त कीजिए। भावनाओं को वश कीजिए । यह सारा जगत इतना अल्पधी है (मूर्ख) कि दस साल पहले बोला था, उस बोलने में समय नष्ट किया, उसके सोचने में समय नष्ट किया, आज फिर सुना रहा है, तो फिर समय नष्ट किया। स्वसमय का विवेक ही नहीं है। कितना बुद्धिमान है ? बड़े प्रेम से पर के शब्दों को रखे बैठा है। 'अखण्डतम्' ज्ञान अखण्ड है, उस अखण्ड ज्ञान की धारा को जैसे ही विषयों की नाली में ले गया तो उसे, खण्ड-खण्ड कर लिया । नदी धारा में बहती है, बाँध बना डाले, अनेक नहरें निकाल दी, फिर नहरों से छोटी-छोटी नहरें निकाल दी। खेतों में चला गया तो हे पानी तेरी धारा नष्ट हो गई। अखण्ड ज्ञानधारा चैतन्यसागर में सिद्धों में मिलने वाली थी, अखण्ड चैतन्यधारा को विषयों की नाली से निकालकर कर्मो की खेती में बो डाला, धारा नष्ट हो गई। अब उगाओ कर्मों की फसल । अखण्डधारा को छेड़ा किसने था? कर्मो की खेती में पानी दिया है। जो ज्ञान सोलहकारण भावना भाने वाला था, जो ज्ञान अशरीरी बनाने वाला था, उस ज्ञान की धारा को तू कषायिक भावों में ले गया । एक क्षण को नहीं संभाल सका, अखण्डधारा नष्ट हो गई। जो अखण्ड में आनंद है, वह खण्ड-खण्ड में आनंद नहीं है। जहाँ द्वैतभाव आ जायेगा, वहीं अशांति है। यही कारण है कि निर्ग्रन्थ योगियों से कहा गया अब तो वनखण्ड में चले जाओ अखण्ड को देखना है तो। रागियों के बीच में रहोगे, तो कहीं-न-कहीं चिंगारी छूटेगी। इसलिए यथार्थ मानना, जो ध्रुवधाम सत्य ज्ञायकभाव है, उस पर पुनः पहुँचो । हमारा ज्ञान अखण्डित है, आकुलता से रहित है। चंचलताएँ जहाँ है, वहाँ निराकुलता नहीं है। ज्ञान में आकुलताएँ नहीं है। परन्तु जैसे ही ज्ञान परज्ञेय में मिलता है, तो आकुलता हो जाती है । पानी काला नहीं होता। पानी जैसा होता है, वैसा होता है। मार्ग में कीचड़ जैसी मिलती है, वैसा हो जाता है। फिर भी पानी अखण्ड निर्मल ध्रुव है। ज्ञानसमल नहीं होता, ज्ञान विकारी नहीं होता, ज्ञान कषायी नहीं होता। कषायों के मिलने से ज्ञान में विकार आता है। द्वेष-राग के मिलने से ज्ञान में विकार आता है। ज्ञान तो अखण्ड ध्रुव एक शुद्ध है। इसलिए किसी भी जिनागम में, चारित्रं शुद्ध धर्म आत्मा नहीं लिखा, 'चारित्रं, खलु धम्मो' तो है, पर आत्मा का धर्म चारित्र नहीं है। आत्मा का धर्म ज्ञान है, वह ज्ञान ही चारित्र है, वह ज्ञान ही दर्शन है, और ज्ञान ही ज्ञान है । निज को जानना सम्यक्ज्ञान है, निज में स्थिर होना सम्यक्चारित्र है, निज में आलंबित करके श्रद्धान कर लेना सम्यक्त्व है। अनंत स्वभावों के मध्य ज्ञान को परम स्व कहा। एक शब्द में कोई आत्मा को जानना चाहे, तो ज्ञानस्वरूप आत्मा चैतन्यमयी, ज्ञानमयी, ज्ञानमूर्ति, अखण्डित, अनाकुलित है और कैसी है? अनंत ज्योतिर्मयी, अनंतस्वभावी, प्रकाशपुंज वह कौन ? मैं, जो परमरूप है। झरता है, भरा नहीं होता। जैसे ही चित्त एकाग्र होता है, वैसे ही योगियों के अखण्ड ज्ञान का स्वरूप निर्झरित होता है। सम्पूर्ण कार्यों का आनन्द लेते हुए, एक रस में सम्मिलित होता है। नमक की डली शुद्ध होती है, तो एक रस देती है। आनंद देती है। ऐसे ही परभावों से भिन्न, चिर-ज्योति चैतन्य रस-रसायन से रसित भगवती-आत्मा, जब एकत्व विभक्त्व में लीन होती है, तब परभावों से परिपूर्ण शान्त होकर एकमात्र निज चैतन्य रस का ही पान करती है। ऐसा है योगी का आनंदधन चैतन्य स्वभाव । न पर का ध्यान, न पर का ज्ञान। निज का ही ध्येय है, निज का ही ध्यान है -
स्वः स्वयं स्वेन स्थितं स्वस्मै, स्वस्मात्स्वस्या विनश्वरम् । स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत् स्वोत्थमानंदमामृतं पदम् ॥२४॥ स्वरूपसंबोधन।।
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