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समय देशना - हिन्दी
३२३ कौन किसको? स्वयं । किससे? स्वेन । किसके लिए? स्वस्मै । किससे? स्वस्मात । किसमें? स्वस्मिन, किम यानी क्या ? ध्यायेत्, यानी ध्यान करो । आनन्द अमृतपद को प्राप्त होता है । जब इस ज्ञानधन की यात्रा प्रारंभ होती है, तब व्यवहार की बात करो तो ऐसे लगता है जैसे शीतल पानी में चेहरा देख रहे थे कि इतने में कोई पत्थर फेंक दे।
जितनी रागवत क्रियाएँ हैं, सब उन्मत्तवत् चेष्टाएँ हैं 'रथ्या पुरुषवत्'। जो निजात्म ज्ञानधन का कथन है, विद्यावृतभारुढ़ो' वह विद्या के रथ पर आरूढ़ जो जाता है। चैतन्य आत्मा ही रथ है । चारित्र और ज्ञान ही दो चके हैं। जिस पर बैठा निज भगवान् आत्मा ही सारथी है, उस विद्यारथ को ले चल, सिद्धालय ही तेरा राजमार्ग है। इस सारथी को साथ में ले चलो, पर उसे स्वामी मत बना बैठना । जाओ अपने घर । निर्णय तो दे सकता है, पर निर्णायक ही, निर्णायक हो सकता है। निर्णय वस्तु कहने वाला ही है, पर निर्णय पूरी वस्तु नहीं है।
निर्णायक से निर्णय ले लेना, पर काम स्वयं ही करना पड़ेगा। क्या करूँ ? निर्णय तो बहुत किये हैं, पर निर्णय लिया नहीं है । इस कलश का चिन्तवन करना, अन्तस् में बैठकर सोचना । जब समयसार का अखण्ड कहने वाला तत्त्व एक क्षण में शांति प्रदान करता है, तो जो अखण्ड तत्त्व में लीन हो जायेगा, वह सम्पूर्ण पर्यायों से, अशांति से दूर हो जायेगा। || भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
aga आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने ग्रन्थराज समयसार जी में सम्पूर्ण आत्मप्रवादपूर्व का स्वानुभव लिख दिया है, और पाँचवीं गाथा में यह स्पष्ट कथन कर दिया है कि यह श्रुत से, आगम से भगवन्तों की वाणी को, स्वानुभव से कह रहा हूँ, और यथार्थ मान कर चलना, कि जो तत्त्व की स्वानुभूति है, वह माँ का बेटा है, और जो स्वानुभुति है, वह माँ का शुद्ध पुत्र है, धाय का बेटा नहीं है । जो ज्ञानानुभूति है वह धाय का बेटा है, जो स्वानुभूति है वह धाय का नहीं, माँ का बेटा है। धाय तो पालन पोषण करती है , लेकिन प्रसूति की अनुभूति कैसी होती है वह धाय को मालूम नहीं होती है। माँ पालन न भी करे, धाय से ही पालन कराये, परन्तु प्रसूति की अनुभूति तो जन्म देने वाली माँ को ही ज्ञात होता है । तत्त्व को एक स्वसंवेदन करके जानता है वही ज्ञानानुभूति स्वात्मानुभूति है।
ज्ञानियो ! चिगना नहीं, यह भी समयसार का शब्द है। चिगना नहीं, स्थिर हो कर समझना है, और वह समझना है, जो समझने की आवश्यकता नहीं है। समझा उसे जाये जो परगत हो । जो स्वगत है, उसे समझा नहीं जाता, उसे अनुभव किया जाता है। समझा उसे जाना चाहिए, जो हमारा न हो। जो हमारा होता है, उसे समझा नहीं जाता है, उसे अनुभव किया जाता है। मैं ही अनुभावक हूँ, मैं ही अनुभव हँ। अखण्ड ध्रुव ज्ञानानुभूति आत्मा का शुद्ध चिद्रूप स्वभाव है। परभावों का विखण्डन जहाँ है, वहीं निजभाव का मण्डन है । यथार्थ मानकर चलना वे परम योगीश्वर जब सबकुछ भूल जाते हैं, तब स्वानुभूति में जाते है । बस , अभ्यास करना चाहिए, सबको भूलने का । भगवान् बनने का अभ्यास बिल्कुल नहीं करना चाहिए, भगवान् बनने का अभ्यास करने वाला कभी भगवान् नहीं बन सकता। जो जगत को भूलने का अभ्यास कर लेता है, वह जगत के विषयों को भुला देता है, वही भगवान् बनता है। किसे छोड़ा, किसने छोड़ा? वह भी छूट जाये, यही ध्रुव ज्ञान है। जिस समय त्याग के परिणाम हों, वही तुम्हारी पुण्यदशा है। पाप कर पाओ या न कर पाओ
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