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समय देशना - हिन्दी
३२१ कोई सामान्य ग्रन्थकर्ता नहीं है। जिस ग्रन्थ का नाम विश्व में है। शरीर को वश करो, वचन को वश करो, तब मन वश में आयेगा। शरीर से तो लिप्त हो पापों में, वचनों से मौन लेने में सिरदर्द करता है। जिनका मौन लेने में सिरदर्द करता है, वे आगे की साधना क्या करेंगे? बल्कि यों कहना चाहिए, कि मौन ले लेने से सिरदर्द कम हो गया । मूक और मौन में अन्तर है। मूक शब्दों को निकालना चाहता है, परन्तु निकलता नहीं है, जबकि मौनी निकालना ही नहीं चाहता। अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहिर्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्य-लीलायितम् ।।१४ अ.अ.क.||
ज्ञानियो ! आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे है- ज्ञानधारा पर ज्ञेयों से खण्डित नहीं है। व्यंजन मिश्रित नमक को खाया है 'खण्डितः सब्जी में नमक का स्वाद सब्जी के साथ तो लिया, पर शुद्ध नमक का स्वाद नहीं लिया । हमने अपने ज्ञान को दूसरे के चेहरे पर लगाकर जाना । जाना ज्ञान से, पर लगाया, पर के चेहरे पर जब पर का चेहरा मैंने देखा, तो पर को ज्ञेय बनाया। जब तुमने दूसरे के चेहरे को ज्ञेय बनाया, विश्वास मानिये, तब चक्षु इन्द्रिय का भोग बना डाला, अन्दर में वेदन करना शुरू किया, जो ज्ञान मेरा निज ज्ञेय-भूत था, वह ज्ञान मेरा विषयभूत हो गया। जो निर्बन्धता को ले जाने वाला था, उसने बन्ध करा डाला । अखण्ड ज्ञान नष्ट हो गया। अहो ज्ञान ! ज्ञाता को संभाल कर न रह पाना तेरा कार्य है, ज्ञाता को भटका देना नहीं है । हे ज्ञान ! तो ऐसा ही है, कि घर में गैस सिलेण्डर रखा था, विधिपूर्वक प्रयोग करता तो भोजन पकाता, प्रकाश भी देता, परन्तु गैस बन्द तो किया, पर जितना करना चाहिए, उतना नहीं कर सका। जिससे धीरे-धीरे गैस निकल गई, कमरे में भर गई, गैस लाने गया था, पर आग कमरे में लग गई, और गैस जलाने के पहले, अपने आप को जला बैठा । तू सोच रहा था, कि मेरा तो सिलेण्डर भरा है। जो ज्ञान की अनुभूति तेरी थी। तूने धीमे-धीमे ज्ञान के गैस को पर ज्ञेयों में इतने निम्न स्थानों में भेज दिया ज्ञान की धारा को, कि जब विवेक जगा, इसके पहले नीचे पूरा गिर चुका था । विषयों की काड़ी लग गई, और चारित्र का भवन जल गया। लिखने का, पढ़ने का विषय नहीं, यह लखने का विषय है। यह आपको ग्रन्थों में लिखा नहीं मिलेगा, निर्ग्रन्थों के अनुभव में मिलेगा। परन्तु ग्रन्थों से बाहर नहीं होगा। यह तो अखण्ड ज्ञान है | चूक अपनी हो रही है। यह ज्ञान ही ज्ञान की चूक है। व्यवहार की भाषा में बोल ले चूक अपनी हो रही है। ध्रुव सत्य है कि ज्ञान ही ज्ञान की भूल कर रहा है। छोड़ो इन्द्रियों को दोष देना। छोड़ो शरीर को दोष देना, ज्ञान ही दोषी है, ज्ञान ही निर्दोष है। कर्मो को कब तक दोष देते रहोगे? छोड़ो कर्मो को दोष देना । कर्मों ने कर्मों को नहीं बुलाया, तेरे भाव कर्मों ने कर्मों को बुलाया। जब भी कर्म तेरे से भिन्न होंगे, तो भावकर्मों को संभालने से ही भिन्न होंगे, पर यह भी सत्य है, कि द्रव्य कर्म न होते तो, भावकर्म क्यों होते? अपन एकांकी नहीं हैं। इसलिए
जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति ।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेत जीवो वि परिणमइ ।।८०॥ समयसार ॥ हे ज्ञानी ! जीव के परिणामों के निमित्त से, कार्माण-वर्गणाएँ कर्मरूप परिणत हुई, और कार्माण - वर्गणाओं के प्रभाव से जीव रागादिक भाव से परिणत हुआ। निमित्त नैमित्तक भाव हैं। लेकिन इसमें संतुष्ट नहीं होना । कर्म से तो नहीं छूट पायेगा। तेरा पुरुषार्थ कर्मो पर नहीं चलना चाहिए, तेरा पुरुषार्थ भाव- कर्मों पर चलना चाहिए। भावकर्म पर पुरुषार्थ करेगा, तो द्रव्यकर्म अपने आप भगेगा। दो-सौ वर्ष पुराने भवन खड़े हैं। उसकी आर्द्रता क्षीण हो रही हो, तो सीमेन्ट-चूना झरने लग जाता है। राग की आर्द्रता क्षीण हो जाये, तो
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