Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 336
________________ समय देशना - हिन्दी ३२० जगत के लोग जो शुद्धात्मानुभूति पर ज्ञेयों में लगा कर बैठे न, वह नहीं है । मात्र ज्ञान का ज्ञेयपना ज्ञानरूप ही जहाँ परिणत हो रहा है, वह स्वात्मानुभूति, शुद्धात्मानुभूति है । आत्मपदार्थ से नहीं हटाना । निज आत्मपदार्थ से भिन्न आत्म पदार्थ को भी हटा देना और जगत में जितने, चाक्षुष पदार्थ दिख रहे हैं, इन सबसे अपने आपको हटा लेना। इनसे हटने के बाद जो तेरे ज्ञान में पाँच ज्ञान बस रहे हैं, उनको भी हटा देना । फिर जो मति-श्रुत शब्द बस रहा है, उसे भी हटा देना । मात्र बचा क्या? ज्ञान । सार बचा। ____ मैं आपको बहुत अच्छी बात बता दूँ। जिन जीवों को अपने विकार भाव बिल्कुल समाप्त करना हों, वे मिलो आज । कितने ही विकारीभाव मन में आ रहे हों, आँखों का टिमकार, साँसों का परिस्पदन, ये दोनों विकारों की वृद्धि के जनक हैं। जिनका टिमकार शीघ्र-शीघ्र चल रहा हो, समझना किसी आवेग में हैं। जिसकी श्वांस बार-बार तेज चल रही हो, वह या तो विकार से पीड़ित है, रोग से पीड़ित है, या मृत्यु के नजदीक है । हे मुमुक्षु ! जो प्राणायाम की विधा शरीर पर टेक दी आज के लोगों ने, ध्रुव सत्य है, कि वह काम-विकार को रोकने की विद्या थी। अब ये टिमकार कैसे शान्त हो, श्वास शान्त कैसे हो? जबरदस्ती टिमकार को शान्त करेगा, वो सफल नहीं होगा। श्वांस को रोकेगा, वह सफल नहीं होगा। स्थिर बैठ जाओ, और अपने चित्त में विकारों कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं इन्द्रिय नहीं हूँ। मैं उसे मात्र खोज रहा हूँ, जहाँ से मैं शब्द आ रहा है, तू ही मैं शब्द का जनक है, उसे खोजो । मैं शब्द का जनक कौन है? जहाँ से मैं ध्वनित हो रहा है, उसको पूरे शरीर में बैठकर खोजे। विश्वास रखो, जब इसे खोजोगे, तब शीघ्र ही श्वासें शांत हो रही हैं। नेत्र स्थिर हो रहे हैं। करके देख लो। ध्रुव सत्य यह है। सब कहते हैं, कि मन वश में नहीं होता, पर मन को वश में करने की प्रक्रिया कोई नहीं करता। जितनी जीभ हिलेगी, श्वाँस चलेगी, टिमकार चलेगी, उतना मन दौड़ेगा। जितनी जीभ शान्त होगी, नेत्रों की टिमकार शान्त होगी, नासाग्र के अन्दर खींचने वाली श्वासें मन्द हो जायेगी। विश्वास रखना, अन्दर शान्त होगा, तो अनेकानेक विद्यायें अपने-आप सिद्ध होना प्रगट हो जाती हैं । बस, पर-विषयों को छोड़ दो तो। हे मुमुक्षु ! छोड़ दे तू कोलाहल । कोलाहल में शांति नहीं है। छह मास बैठ जाओ मौन से। निज की अनुभूति का अभ्यास कर । स्पन्दन समाप्त हो जायेगा, तो निज का वेदन प्रारंभ हो जायेगा । छ: महीने तक अभ्यास कर । जीवन निकल गया, पर हम अपने लिए छ: महीने नहीं दे पाये। क्रिया- काण्ड की धारा पर इतने आश्रित हो गये, कि अपने को छः महीने नहीं दे पाये । मौन ले लो। विराम हो जाओ प्रपंचो से, वाणी का ही विराम नहीं। अभिराम निज में ही निज का गमन हो । वचन व मन से मौन हो जाओ तन के साथ । वचन का मौन ले लिया, परन्तु तन का मौन नहीं लिया, तो चंचलता तीव्र होती है। मौन ले लिया, और संकेतों में बात कर रहे हो, विश्वास रखो, तो योग ज्यादा हिलाना पड़ता है। उससे चंचलता और बढ़ती है। कोई भी योग चंचल होगा न, तो स्थिरता नहीं आ सकती। वचनयोग को विराम दिया है, तो काय को भी विराम दो। वचन और काय को विराम दे दिया। आप परिपूर्ण विश्वास के साथ समझना, तो मनयोग को शान्त होना ही पड़ेगा। हे ज्ञानी! पैरो को दौड़ने में शक्ति साथ देती है। आपके दोनों हाथ को पीछे बाँध दें, तो आप दौड़ नहीं सकते। इसी प्रकार काय व वचन इनको बाँध दो, जो मन को वश में करने की बात करते रहते हैं। आचार्य उमास्वामी ने परिपूर्ण यथार्थ लिखा है। 'कायवांङ्गमनः कर्मयोगाः' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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