Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 334
________________ समय देशना - हिन्दी ३१८ सुख को इन्द्र भी करोड़ देवियों के साथ रमता हुआ नहीं पाता। व्यवहार-धर्म धर्म तो है, पर वह धर्म नहीं है जो निश्चय धर्म है । व्यवहार को ही इतना बढ़ावा दे दिया, निश्चय पर लक्ष्य नहीं ले गये, मिश्री खाने वाले को गुड़ में ही संतुष्ट करा दिया। पर ध्यान रखना, जब-तक मिश्री न मिले, तब-तक गुड़ ही खा लेना, उसे छोड़ मत देना । लक्ष्य में मिश्री ही होना चाहिए। यही कारण है, कि जिसने इस तत्त्व को समझ लिया न, वह अन्य तत्त्वों से उदास होने लगता है, और उदास होना ही मोक्षमार्ग है। उदास यानी परभावों से मध्यस्थ भाव।। जो सामान्य विशेष से अनुभवन किया, उस सामान्य विशेष में क्या समझा? सामान्य को सामान्य विशेष को विशेष अनुभवन तो किया, पर शुद्ध नमक को फिर भी नहीं खाया। यहाँ नमक का ही दृष्टान्त क्यों दिया? इसलिए, क्योंकि दृष्टान्त वही देना चाहिए, जो छोटे से बालगोपाल भी समझ लें। सोने-चाँदी, हीरेजवाहरात के दृष्टान्त देते तो वह किसी गरीब के नहीं होता। ऐसा कौन-सा अभागा गरीब होगा, जिसके घर में नमक की डली भी नहीं है ? सामान्य-विशेष तो कह रहे हो, विशेष्य को नहीं पकड़ रहे हो। उसी प्रकार से ज्ञेयाकारों से किंचित युक्त होते हुए तत्त्व को जाना, जो परमज्ञान से अबुध्यज्ञान रहा। ज्ञेय को जानना ही ज्ञान है, ऐसा अधिकांश लोग मानते हैं। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो ज्ञान को ही ज्ञान मानते हैं। पहले कहते थे जान लो, अब कह रहे हैं कि इन ज्ञेयों को कब तक जानोगे? ज्ञेय ज्ञान नहीं है। कर्ता (स्व) साधन ज्ञान है, करण साधन पर ज्ञेय है। करण तो करण ही होता है, करण कर्त्ता नहीं है। कर्म तो कर्म है, और कर्ता ही कर्ता है। कर्ता से जताया जाता है कि करण से जनाया जाता है ? जनानेवाला कर्ता है, और जानन क्रिया है और जाना जा रहा है, वह कर्म है। जब तक भेद-कर्ता-करण में चिपके रहोगे, तब-तक अभेद कर्ता-करण पर दृष्टि नहीं जायेगी। पेन से पेन को नहीं जाना । ग्रन्थों में ज्ञान नहीं है । ग्रन्थों का धर्म ज्ञान नहीं है। द्रव्यश्रुत ज्ञान नहीं है, द्रव्यश्रुत, द्रव्यश्रुत है। द्रव्यश्रुत,के माध्यम से जाना जाता है। लेकिन ज्ञान तो भावश्रुत ही है। कब तक द्रव्यश्रुत का आलम्बन लिये रहोगे? जब तक भावश्रुत का आलम्बन नहीं है, किंचित अशुभ से तो बच पाओगे, लेकिन शुद्ध में नहीं जा पाओगे । बीजाक्षरों का ध्यान है, मंत्राक्षरों का ध्यान है, पिण्डस्थपदस्थ जितने ध्यान हैं, ये सब आलम्बन हैं। रूपातीत ध्यान आत्मा का स्वभाव है, अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहिर्मह: परममस्तु न: सहजमुद्विलासंसदा। चिदुच्छलननिर्मरंसकलकालमालम्बते यदेकरसमुल्लसलवणखिल्य लीलायितम्॥१४||अ.अ.कलश। ___ अर्थात् - वह उत्कृष्ट तेज प्रकाशरूप हमें प्राप्त होवे, जो सदाकाल चैतन्य के परिणमन से भरा हुआ है। जैसे लवण की डली एक क्षार रस की लीला का आलम्बन करती है, उसी भांति एक ज्ञानरस स्वरूप को आलम्बन करता है। वह तेज खंडित है - जो ज्ञेयों के आकार से खंडित नहीं होता; अनाकुल है - जिसमें कर्म के निमित्त से हुए रागादिकों से उत्पन्न आकुलता नहीं है; अविनाशी है । अंतरंग तो चैतन्य भाव से दैदीप्यमान अनुभव में आता है और बाह्य वचनकाय की क्रिया से प्रकट दैदीप्यमान है; सहज स्वभाव से हुआ, इसे किसी ने रचा नहीं है और सदैव उसका विलास उदयरूप है; एकरूप प्रतिभा समान है। आत्मा भी परद्रव्य से संयोग विछिन्न होने पर, केवल अनुभव करते हुए, एक विज्ञान ज्ञानधन परम पारणामिक जो कैवल्य की प्राप्ति का परम मार्ग है, वही शुद्धज्ञान की अनुभूति है । 'आत्मानुभूति । यह है शुद्धात्मा । अब For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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