Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 332
________________ अन्यथा समय देशना - हिन्दी ३१६ चाहिए, ऐसा होना चाहिए, यह सुना था । अब जो आप सुन रहे हो, ऐसा है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है, था नहीं है। पर-ज्ञेयों को जब-तक जानते रहेंगे तब तक ज्ञान व्यंजन में नमक के समान है और व्यंजन को ही नमकीन कहता है। इन अबुद्धिमानों ने वही बुद्धि मान ली है, कि वेसन में मिलाये नमक को ही नमकीन कहना सीख गये हैं, पर ज्ञेयों में लिप्त होकर परमात्मा की आराधना को आराधना समझ रहे हैं। यह पर की आराधना नहीं थी, वह द्वैतभाव था। आत्मा की आराधना ही परम शुद्ध आराधना है। यह परमात्मा की आराधना इसलिए कराई जाती है, कि आप पापों की आराधना में लगे हो । जो अप्रशस्त ध्यान में लीन हो, उनके लिए प्रशस्त ध्यान की बात की जा रही है। जिससे मोक्ष मिलनेवाला है न, आप आज उसकी बात कर रहे हो। अभी तक जो बात की स्वर्ग मिलने तक की बात की। अरहंत की पूजन, पंचपरमेष्ठी की आराधना, कभी साक्षात् मोक्ष दिलानेवाली नहीं है, वह मात्र स्वर्ग का साधन तो है, पर, ज्ञान और ज्ञेय का अभेद भाव ही निर्वाण का कारण है। ये जितने तामझाम पण्डाल आदि दिख रहे हैं, वे तेरे निज आत्मतत्त्व का साधन किंचित भी नहीं हैं। ये स्वर्ग के साधन हैं, अशुभ से बचने के साधन हैं, परम्परा से साधन के साधन हैं। पर साध्य की प्राप्ति में साधन नहीं है। जो साधकतम करण है, ज्ञान का, ज्ञेय का अभेद भाव ही है। अच्छा है, आप पाँच पापों से विरक्त होकर यहाँ आये हैं। आपके लिए साधन का साधन हैं, कारण का कारण है। पर संतुष्ट मत हो जाना इसमें। ये ज्ञानी लोग साधन के साधन में ही साध्य मान बैठे हैं। क्या मुनि बनना तपस्या है ? मुनि बनना तपस्या नहीं है, तपस्या के लिए मुनि बनना । वस्त्र तो निकाले जाते हैं, पिच्छि कमण्डलु तो पकड़ा जाता है, परन्तु विषय-कषायों को रोका जाता है। जितने अंश में विषय-कषाय रोकी है, उतने ही अंश में मुनिराज है, अबंधक है और जितने अंश में काषायिक भाव हैं, उतने अंश में बंधक ही है । दसवें गुणस्थान तक कषाय है, ग्यारहवें में उपशम भाव है, उदयभाव से दसवें तक । जो दसवें गुणस्थान तक सूक्ष्म लोभ कषाय बैठी है, वह क्या यथाख्यात चरित्र को प्रकट होने दे रही है ? येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ॥२१३|| येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ॥२१४|| पु.सि.उ.॥ जितने अंश में ज्ञान है, उतने अंश में बंध नहीं है, जितने अंश में चारित्र है, उतने अंश में बंध नहीं है। जितने अंश में सम्यक्त्व है, उतने अंश में बंध नहीं है, और जितने अंश में राग है, उतने अंश में बंध है। रत्नत्रय बंध का कारण नहीं है । जो मुमुक्षु चारित्र को बंध का कारण कह रहे हैं, वे शुद्ध आगम के विपरीत कथन कर रहे हैं। चारित्र बंध का कारण नहीं है, पर चारित्र के साथ बंध हो सकता है । तीर्थंकर-प्रकृति, आहारक शरीर का बंध होता है। जैसे कि तीर्थंकर भगवान के समवसरण में भक्तों का जाना । तीर्थंकर ने आपको कब बुलाया ? नहीं बुलाया। उनके हुए बिना आप आये नहीं। यहाँ प्रश्न कर सकते थे कि बन्ध तो योग और कषाय से होता है, फिर मिथ्यात्व गुणस्थान में योग भी है और कषाय भी है। वहाँ पर भी तीर्थंकर प्रकृति का व अहारक शरीर का बन्ध होना चाहिए? तब कहना कि नहीं, कि मिथ्यात्व की सत्ता में कषाय की सत्ता में योग हो, उस काल में आहारक शरीर, तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होगा। फिर कब होगी? चारित्र के साथ, सम्यक्त्व के साथ यदि कषाय और योग है तो तीर्थंकर और आहारक प्रकृति का बंध है । क्यों? इसलिए बंध कराते नहीं हैं, पर इनके हुए बिना इन शुभ प्रकृतियों का बंध होता नहीं है। करणानुयोग को भी For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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