________________
समय देशना - हिन्दी
३१७ बहुत अन्दर से समझो। सर्वार्थ-सिद्धि का देव जो बनेगा वह जीव क्या अविरत सम्यग्दृष्टि बनेगा? निर्दोष अखण्ड संयम का पालन करने वाला जीव ही सर्वार्थसिद्धि का देव बनता है। रत्नत्रय धर्म से मोक्ष होना चाहिए था। फिर सर्वार्थसिद्धि के देव क्यों बनेंगे? हाँ, रत्नत्रय तो सिद्ध ही बनाता है; पर रत्नत्रय की साधना में जो शुभ राग था, उसके कारण स्वर्ग गया।
नमक की डली जो है, व्यंजन के साथ खाई है, आपने उसे नमकीन कहना सीख लिया है, क्यों? अबुध्यमान होता है, जाना ही नहीं। जिस जीव ने आँख खुलते ही धर्म को क्रियारूप समझ लिया और समयसार जैसे ग्रन्थ को पढ़ने का निषेध कर दिया, वह जीवनभर नमकीन को ही नमक कहता रहेगा, वह शुद्ध नमक की डली को चख ही नहीं पायेगा । ज्यादा हुआ तो विधान /पंचकल्याणक करवा दो। इनका निषेध नहीं कर रहा, करना चाहिए, बहुत अच्छी बात है, अशुभ से बचोगे, लेकिन उसके आगे भी कुछ है, उस पर ध्यान दो। नहीं तो आप मुनिराज बन गये, मुनिराज बनकर भी आप प्रतिष्ठाचार्य थे। प्रतिष्ठाचार्य के विचार का त्याग न करके मात्र वस्त्र का त्याग किया है। तो भेष तेरा ज्ञायक-स्वभाव होगा, और परिणति तेरी राग में लिप्त रहेगी। एक क्षण ऐसा आयेगा, इतने ऊँचे पहुँचेंगे, जब परिणति के परिणाम का भी विकल्प समाप्त हो जायेगा । सुनने में जब आपको इतनी एकाग्रता लग रही है, तो उस स्वभाव के लिए कितनी एकाग्रता चाहिए, बगल में क्या हो रहा है, वह भी न दिखे, और तो क्या, मैं मुनि हूँ, मुनिस्वभाव का भी त्याग हो जाये।
प्रज्ञा का परिणमन पर ज्ञेयों से भिन्न हो जाये । प्रज्ञा के व्यभिचार का त्याग कर दो। तन के व्यभिचार का त्याग अनंतबार किया है, पर प्रज्ञा के व्यभिचार का त्याग ही शुद्धात्मानुभूति है, और जो प्रज्ञा का परिणमन है, उसे प्रज्ञा में ही लगा देना । नवजात बछड़े का जन्म होता है, किसान उसका दूध उसी भैस को पिला देता है। वह पीता नहीं है। बछड़े को भी ज्यादा नहीं पिलाते। उसी भैस को पिला देते हैं। क्यों पिलाया? एक तो आपके उपयोग का नहीं था, बछड़ा भी ज्यादा पीने से बीमार हो जाता। इसीलिये उसका उसी को पिलाया है उसके दूध की वृद्धि हो गई, ताकत मिल गई उसको । हे ज्ञानी ! जैसे भैंस के दूध को निकालकर भैंस को ही पिलाया है, ऐसे ही आत्मज्ञान को आत्मज्ञान में ही लगा देना, तो तेरा परमज्ञान प्रगट होगा। यहाँ कोई मिश्र की बात नहीं होगी। अन्तर में लीन हो जाना स्वानुभूति है।
माँ ने पेड़े बनाये, बेटा दूर से देख रहा था। बेटे की दृष्टि अभी पेड़े पर है। जब वह दूर से देखता है, तो अन्तर्मुखी होकर देखता है। जब पेड़े को खायेगा, तब अन्तर्मुखी नहीं होगा, अनुभूति में होगा। वह मात्र स्वाद-ही-स्वाद ले रहा है। ऐसे ही निज में ही रमण इसका नाम है स्वात्मानुभूति । इस समयसार ग्रन्थ को बड़े प्रेम से मैं समझा सकता हूँ। जिनको भ्रम है कि मैं भी निश्चल शुद्ध निर्विकल्प आत्मानुभूति लेता हूँ। वह आत्मानुभूति नहीं है, क्योंकि आपके पास में द्वैतभाव चल रहा है, ज्ञेयभाव चल रहा है, ज्ञाताभाव चल रहा है।
जं मुशि लहइ अराांत-सुहु सिाय-अप्पा झार्यतु । तं सुहु इंदु वि राावि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ||117प.प्र.।। जो सुख आत्मा को ध्यावने से महामुनि पाते हैं, वह सुख इन्द्रादि देवों को दुर्लभ है - अपनी आत्मा को ध्यावता परम तपोधन जो अनन्त सुख पाता है उस
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org