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समय देशना - हिन्दी गई थी और कह रहा था सहजभाव है। यानी सहज को लेकर के देखना यह शब्द समयसार से लिया और उसका दुरुपयोग कैसे किया ? चारों संज्ञाओं की पूर्ति करना, और कितने तार्किक रूप से आपको पिलाया गया, (पिलाया क्या गया, विश्व में फैलाया), कि आप जो संयम धारण कर रहे हो, यह सहज का निरोध है जो अशुभभाव संज्ञाएँ सता रही हैं, आहार, भय, मैथुन परिग्रह । बोले यह सहजभाव है । इनका परिपूर्ण उपभोग करो, तो आप स्वयं सहज हो जाओगे। मृत्यु हो गई, प्राण चले गये, असहज से सहज कहाँ हो पाये। पर कहते ही गये । यह आगम का दुरुपयोग है। वह शब्द कहाँ से उठाया था? समयसार से ! आप विश्वास रखना, देश का कोई भी वक्ता होगा, उसकी पुस्तक दे देना, मैं बता सकता हूँ, यह व्यक्ति कहाँ से बोल रहा है। यहाँ तक कि उन्होंने जो दृष्टान्त दिये है। उस जीव ने शुद्ध दिगम्बर आम्नाय के प्रथमानुयोग की कथाएँ, उनके शब्द इधर-उधर करके परिवर्तित करके बोल दिये, तो लोग समझने लगे, बहुत बड़ा तार्किक जीव है, अपने यहाँ से बोल रहा है। विश्वास रखना, बिना आधार के आगे बढ़ा ही नहीं जाता। आधार होता है, फिर चिन्तन चलता है । क्रोध आ गया, क्यों क्रोध करते हो? यह सहजभाव है? अरे ! मायाचारी कर रहा है। क्यों, भाई ! मायाचारी क्यूँ कर रहे हो ? यह सहज है। परिग्रह में लिप्त है। क्यों ज्ञानी इतना क्यों इकट्ठा कर रहा है ? सहज है, मैं तो कुछ कर नहीं रहा। ज्ञानी ! ये सहज नहीं है। यदि ये सब कुछ सहज है, तो असहज क्या है, फिर आप अपनी भाषा बना लो, कि असहज क्या है, संयम धारण करना, असहज । ठीक तो है, क्षुधा लग रही है, सहज है । आप इसको भोजन नहीं दे रहे हो, यह असहज है। नहीं, ऐसा कह मत देना। अग्नि पर जल का रखा जाना, अग्नि के सहयोग से नीर उष्ण हुआ है, ये सहजभाव नहीं, यह सौपाधिक भाव है। पर की उपाधि है। इसी शब्द को लेकर आप आगे बढ़ते जाइये । क्रोध आया है, सहज नहीं, सोपाधिक है, पर निमित्तक है। बैर सता रहा है; सहज नहीं है, सोपाधिक है। वेदकर्म की उदीरणा है, क्षुधादि सता रहे हैं, ये जितने अशुभभाव हैं, वे सहजभाव नहीं, कर्म की उपाधि के कारण परभाव हैं। पानी का शीतल धर्म सहज है। पानी को कितना ही गर्म कर देना, लेकिन समय पाते ही ठण्डा हो जायेगा । अब सहजभाव का सत्य स्वरूप समझिये । असत्य स्वरूप समझा, कितना विपर्यास किया है। उस व्याख्यान को पढ़ते-पढ़ते सुनते-सुनते यह नव पीढ़ी तुरन्त भ्रमित होती है। ठीक तो है, ये सहज है, क्योंकि समझ में आ रहा है, गहरे में जाना तो कोई पसन्द करता ही नहीं है। उसको समझ में आ रहा है, कि सहज है। जहाँ आप पहुँच नहीं पाये और सहज-सहज चिल्लाते हो, वहाँ कर्म की उपाधि को क्यों नहीं पकड़ रहे हो? रात्रि में निद्रा आना सहजभाव है। बिल्कुल नहीं है, सोपाधिक भाव है । जीवद्रव्य में क्षुधा लगना, निन्द्रा आना, मैथुन होना, परिग्रह रखना, इत्यादि सहजभाव यदि है, तो फिर अशरीरी सिद्धों में भी होना चाहिए, क्योंकि सहजभाव त्रैकालिक होता है, असहज भाव तात्कालिक होता है। चाहे पानी कुएँ के अन्दर हो, चाहे तालाब के अन्दर हो, चाहे आपके घर की टंकी के अन्दर हो, पानी अपने सहजभाव में शीतल होता है । जब भी उष्ण पानी आ रहा है, कहीं-न-कहीं पर का सहयोग है। पानी अपने धर्म में गर्म नहीं है, परधर्म के सहयोग से है। बड़ा गंभीर शब्द है सहज । अनागम में प्रवृत्ति होने के कारण, लोक में बहुप्रतिष्ठा के लोभ में आकर कभी अनागम की भाषा आगम की गद्दी पर से बोल मत देना । सहजभाव है, रात्रि में निन्द्रा का आना सहज है न, भूख लगना सहज है न? यह सही नहीं है। साधु विश्राम करते हैं, तो इसका अर्थ सहज नहीं हो गया। किसी व्यक्ति में कोई कमी है, और वह प्रतिष्ठित पुरुष है, उस प्रतिष्ठित पुरुष के द्वारा कि गई कमी
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श्रेष्ठ नहीं हो जाती है। निद्रा तो थकावट को
दूर करने के लिए आती है । थकावट को दूर करने के लिए नींद
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