Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 296
________________ २५० समय देशना - हिन्दी स्वभाव के साथ विपर्यास है। आप मेरी भाषा समझ रहे हो ? मैं नहीं बोल रहा, हृदय बोल रहा है, जो मैं लोक में देख रहा हूँ । एक जगह तो इतना खोटा दृष्टांत दे डाला, किसी ने किसी के साथ अशुभकर्म किया। दो लोग झगड़ रहे थे, एक ज्ञानी आकर कहता है, क्यों लड़ते हो? ये पुद्गल का परिणमन पुद्गल में हुआ था, तुम विवाद को छोड़ दो।' हे ज्ञानी ! तूने कुशील- जैसे पाप को बढ़ावा दे दिया । उसको यूँ भी कह सकता था, एक कषाय के आवेश में तू विकार कर बैठा । बंध तो कर ही लिया, अब झगड़ कर और नवीन कर्म का बंध क्यों कर रहे हो ?' इस भाषा से सिद्धान्त बच जाता। ऐसा क्यों नहीं कहा? इसमें आपने दोनों विभावों से हटने की चर्चा की, उस शब्द ने उसकी पुष्टि कर दी । ईश्वरवादी क्या बोलता है? भगवान् की जैसी इच्छा थी, वैसा हो गया। कर्मवादी भी कहता है, करणानुयोग वाले भी विपर्यास करते हैं । कि वेद कर्म का उदय था, तो ऐसा हो गया। धिक्कार हो । वेद कर्म के उदय से ऐसा हुआ है, तो संयम किसके उदय से होगा ? तीसरा मिथ्यादृष्टि कहता है, पुद्गल का परिणमन पुद्गल में हो गया । पुद्गलवादी मिथ्यादृष्टि । इन सब पर गौर कीजिए। यूँ कहना चाहिए, हे ज्ञानी ! तू क्यों विकारी भाव करके कर्मबन्ध कर रहा है? विकारों को छोड़ दो । कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धांनुरूपतः I I तच्च कर्मस्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः ॥ ९९ आप्त मीमांसा | कामादिक के प्रभाव से कर्मबन्ध होता है। एक ज्ञानी ने पुस्तक में क्या लिखा? पानी के छानने से क्या होता है, अपनी आत्मा को छानो, यानी इस शब्द ने अज्ञानियों जैसों को ठग लिया । आत्मा छानूँगा, और जो पानी छान कर पीता था, उसे छोड़ दिया । अरे, भाषा सुधारिए, ऐसा कहो । हे भगवान आत्मा ! पानी छान -छानकर पीता है, वैसे ही परिणाम भी छानना चाहिए। इस शब्द से चरणानुयोग भी बचा, द्रव्यानुयोग भी बचा । बड़े संभलकर बोलने की आवश्यकता है। एक क्षण में सिद्धान्त बदलता है, टूटता है। हमारे बोलने मात्र से किसी ने विपर्यास करना शुरु कर दिया, विश्वास रखना, कोटी-कोटी पाप का आस्रव करेगा। पर के भव भ्रमण का साधन नहीं बनना । इसलिए कम ज्ञानी कहलाना श्रेष्ठ है, परन्तु विपरीत ज्ञानी होकर बहु ज्ञानी होना श्रेष्ठ नहीं है । अज्ञानान्मोहतो बन्धो नाज्ञानाद्वीतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष. स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा । ६८ आ.मी. ॥ अल्पज्ञान भी मोक्ष का कारण है, यदि मोह रहित है तो। बहुज्ञान भी संसार का कारण है, यदि मोह सहित है तो। इसलिए ध्यान दो, अल्पज्ञानी होकर श्रद्धान श्रेष्ठ है, तो मोक्ष का साधन है। श्रद्धान विपरीत है, तो ग्यारह अंग का ज्ञान भी भव में भटकाने का कारण है। अभव्य जीव भी ग्यारह अंग का ज्ञान प्राप्त कर सकता है । अभेद उपचार से, सम्यक्त्व विषय होने से, जीवादि तत्त्व सम्यक्त्व नहीं है, जीवादि तत्त्व सम्यक् के विषय हैं, कारण हैं । कारण में कार्य का उपचार करके उनको भी सम्यक्त्व कहा है । जैसे, लिखा होता है न 'जल ही जीवन है', 'अन्न ही प्राण है' जीवन धारण का साधन होने से जल को भी जीवन कहा जाता है । अन्न से प्राणों की रक्षा होती है, इसलिए अन्न को प्राण कहा जाता है। इसी प्रकार से सात तत्त्व सम्यक्त्व की उत्पत्ति के साधन हैं । निश्चय से 'परिणाम ही सम्यक्त्व है। आप पूजा कर रहे थे, इतने में किसी ने किसी से कहा, अमुक व्यक्ति बहुत धर्मात्मा है। यह क्यों कहा ? पूजा को देखकर । पुण्य को देखकर आपने उसे धर्मात्मा कह दिया। पर ध्रुव सत्य है, कि पूजा पुण्य की क्रिया थी । क्रिया में ही कर्म का उपचार किया, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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