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समय देशना - हिन्दी दोनों के काम की नहीं बची।
__ जिस दिन सत्य समझ में आयेगा, उस दिन कुछ और ही होगा। सहज स्वरूप होता है । सहज अविकारी होता है। विकारों में सहज कैसा? आत्म साक्षात्कार कर लीजिए, सहज है। यह समयसार का शुद्ध अशुद्धोपयोग है। दाढ़ी आना सहज है, तो जन्म से क्यों नहीं आई ? एक निश्चित उम्र पर ही क्यों आई?
हे ज्ञानी ! सहज जो होता है, कालिक साम्य होता है । नीबू डालने से दूध फट गया, परस्पर सम्बन्ध की अपेक्षा से सहज है। वास्तव में दूध का फटना सहज था, कि असहज था? परभाव से पररूप परिणत हुआ है । अहो भगवती आत्मा ! तू चिद्रूप चैतन्यस्वभावी थी। कर्म के सहयोग से विभाव हुआ है, इसलिए असहज है। इस सहज से आपने पाँचों पाप कर लिए, और बोलता है कि सहज है। होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम' ये सहज है तो आप जगत के किये बिना जगत में बैठे कैसे हो? इसलिए ध्यान दो,
धम्मोमंगल मुक्किट्ठ, अहिंसासंयमो तवो ।
देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ ८ वीर भक्ति ॥ यह वर्द्धमान की ही देशना है। आपने यह सिद्धान्त सहज लागू कर दिया, तो उनका यह सूत्र भंग होता है। समयसार था, इसलिए वह सहज था। जब तेरे ऊपर वर्षा होने लग जाये पत्थरों की, तब कहना अहो ! ये दूसरा बेचारा क्या कर सकता था ? मेरे कर्म का विपाक उदय में न होता, तो पर के भाव ऐसे होते क्यों? यह तो मेरे कर्म का उदय सहज है वर्तमान अपेक्षा । पूर्व में मैं असहज हुआ था, इसलिए सहज है। जैसे खटाई के ऊपर पानी पी लिया, तो खाँसी हो गई। खाँसी होना तो सहज था; उदय में आ गई, सहज है। लेकिन तुमने जो किया था, जो कि वह सहज नहीं था, खटाई के ऊपर पानी पी लिया। आपने जो पूर्व में खोटे कर्म किये, फिर क्यों रोता है ? जब करने में असहज था, तो भोगने में भी सहज आता है। यहाँ जो समयसार का सहज शब्द है, वह त्रैकालिक कैसे बनता है ? उसे ध्यान दो। एक व्यक्ति अपने घर के आँगन में घूम रहा था वह सहज था। आज वह मन्दिर में पूजा कर रहा है, तब भी वही पुरुष है। वह शान्त बैठकर अपनी शिशु पर्याय, युवा पर्याय, इन पर्यायों को न देखते हुये अपने चैतन्य ध्रुव जीवत्व भाव को निहार रहा है। मेरे में कोई अन्तरनहीं। मैं तो वही ध्रुव आत्मा हूँ। ऐसा चिन्तन चल रहा है।
कर्म-सापेक्ष रूप से आपका कहना भूतार्थ है, सत्य है । पर कर्म निरपेक्ष आपका कथन परिपूर्ण असत्य है। यहाँ जो सहज का कथन है, वह चैतन्यमालिनी, परमानन्दशालनी भगवती आत्मा को निहारिये, उसके लिए सहज है, कर्मसापेक्ष जितनी भी क्रियाएँ हैं, वे सब-की-सब असहज हैं। अर्थ पर्याय का परिणमन त्रैकालिक सहज चल रहा है। जो अर्थ पर्याय के साथ व्यंजन पर्याय है न, उसकी प्रवृत्ति चल रही है, वह असहज है। शुद्धव्यंजन पर्याय सहज स्वरूप है, अशुद्ध व्यंजन पर्याय संसारी जीवों की सब असहज है। यदि आप व्यंजन पर्याय मात्र कहेंगे, तो श्रद्धा में व्यंजन पर्याय घटित नहीं होगी। जब छः द्रव्यों में अर्थपर्याय होती है, तब जीव और पुद्गल में अर्थ व्यञ्जन पर्याय होती है।
धर्माधर्मनभः काला अर्थपर्याय गोचराः ।
__ व्यंजनेन तु सम्बद्धौ द्वावन्यौ जीव पुद्गलौ ॥२॥ ज्ञानार्णव || ___ यह श्लोक आचार्य शुभचन्द्र स्वामी के ज्ञानार्णव ग्रन्थ से बोल रहे हैं, यह ग्रन्थ ध्यान का उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इसमें परमाणु भी व्यञ्जन पर्याय है, ऐसा प्रश्न किया था। तो ऐसा पुद्गल होता ही नहीं है, जो व्यञ्जन
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