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समय देशना - हिन्दी
३०५ कर रहे हो, तो बोले कि कुछ नहीं, हमें औरंगाबाद जाना है, तो दौड़ते-दौड़ते दो रोटी खाई, और बस पकड़ ली। क्या उन्होंने दौड़ते-दौड़ते रोटी खाई ? यानी शीघ्रता में काम किया, उसका उपचार दौड़ते-दौड़ते लगा लिया। कपड़े उतारते-उतारते केवलज्ञान हो गया, मतलब आधे कपड़े तो उतर ही नहीं पाये होंगे। फिर जो कपड़े पहने में केवलज्ञान मानता है, उनमें और आपमें अन्तर क्या रहा ? अब संभल कर बोलना, कपड़े उतारते-उतारते का मतलब यह था, कि विधिपूर्वक जैनेश्वरी दीक्षा ली है, और ध्यान किया, तब केवलज्ञान हुआ है। बिना ध्यान के कैवल्य हो कैसे गया ? यह सहज भाषा भ्रम को उत्पन्न करने वाली होती है। एक समय में सौ पान में छेद हो गये, बोले कि समय ही नहीं लगा। पर ध्यान दो, प्रत्येक पान में जो सुई जा रही थी, क्रम-क्रम से जा रही थी, अक्रम से गई क्या ? नहीं न ? इसी प्रकार से निश्चय और व्यवहार दोनों पक्षों को समझ कर, और पक्षपात से विमुक्त होकर स्वात्मसिद्धि में गमन करना चाहिए।
पज्जयविजुलुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि ।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूविंति ॥१२॥ पंचास्तिकाय ॥ असामान्य जाति और समान-जाति ये पर्याय दो हैं, जो दिख रही हैं। शरीर आदि असामान्य जाति पर्याय है। मैं मनुष्य हूँ न, ये हमारी असामान्य-जाति पर्याय है। लेकिन हमारी इस असामान्य-जाति पर्याय का बन्धक कौन है ? पर्याय का बन्धक पर्याय है, कि पर्यायी है ? पर्यायी है। इस पर्याय में जो भी सुख-दुःख घटित हो रहा है, उसका वेदक पर्याय है, कि पर्यायी है ? पर्यायी है। वह सुख-दुख का वेदन जो पर्यायी कर रहा है, वह पर्याय से कर रहा है, कि ज्ञान से? ज्ञान से कर रहा है। तो ये बताओ, वह ज्ञान पर्याय का धर्म है, कि पर्यायी का धर्म है ? पर्यायी का । अच्छा यह बताओ जो ज्ञान गुण है पर्यायी का, वह पर्यायी से भिन्न है, कि अभिन्न है ? अभिन्न है। फिर ज्ञान आत्मा में है कि आत्मा में ज्ञान है ? आत्मा में ज्ञान है । ज्ञान में आत्मा तो नहीं है न? गुण-गुणी भिन्न होता है कि अभिन्न होता है ? ज्ञान युत-सिद्ध है कि अयुत-सिद्ध है ? युत-सिद्ध नहीं है अयुत-सिद्ध है । भिन्नत्व भाव है, कि अभिनत्व भाव हैं ? समवायी करण है, कि असमवायीकरण है ? हमारा समवायी करण वैशेषिक का समवायीकरण नहीं है । वे संयोग को समवाय बोलते हैं, हम स्वभाव को समवाय बोलते हैं, इसलिए असमवायी नहीं है, समवायीकरण हैं। भूल सुधारना। ज्ञान और आत्मा का अविनाभाव सम्बन्ध है । हम समवायीकरण कैसा मानते? अभेद में अभेद का समवायीकरण। ज्ञान, दर्शन, सुख, चारित्र ये क्या है? समवाय हैं। ये किसमें है ? आत्मा में हैं ? भिन्न हैं, कि अभिन्न ? अभिन्न हैं। नैयायिक वैशेषिक ने जो समवाय का सूत्र बनाया है, वह आत्मा में ज्ञान का समवाय मानते हैं | ज्ञान आत्मा में अलग से आया है, संयोग समवाय, वैशेषिक । आत्मा में ज्ञान गुण का संयोग समवाय नहीं है। हमने माना है, भिन्नत्व के लिए संयोग सम्बन्ध है, अभिनत्व के लिए नहीं है । ग्रन्थों को धीमे-धीमे पढ़ना चाहिए। जल्दी पढ़ोगे, तो जल्दी भूलोगे। एक ग्रन्थ में कम से कम एक साल लगाओ, फिर कोई पूछे तो आप उसका उत्तर सही दे सकते हो। पर्यायी ज्ञान से वेदन कर रहा है। विद, यानी वेदन करना। जो स्वसंवेदन शब्द है, उसका अर्थ क्या है? जो-जो भी वेदन होता है, वह स्वसंवेदन है, जैसे पेन को देखा जाना । जब तक आपके ज्ञान का विषय नहीं बनेगा, तब तक जाना कैसे ? परीक्षामुख' कर्ता आचार्य माणिक्यनंदि लिखते है।
"घटमहमात्मना वेभि ।।८।। परीक्षामुख ॥ ___ मैं घट को अपनी आत्मा से वेदन करता हूँ ऐसा क्यूँ कहा ? गुण-गुणी में अभेद होता है । ज्ञान ही
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