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समय देशना - हिन्दी एक पक्ष यह भी सत्य है। लेकिन, हे ज्ञानी ! ज्ञान ज्ञेयाकार हो जाये, तो ज्ञेय तो अग्नि थी, वह जल रही थी, तो ज्ञान भी जलने लग जायेगा, यह भी सत्य है । ज्ञान ज्ञेयाकार होता है प्रतिबिम्बभूत रूप, लेकिन ज्ञान तन्मयभूत ज्ञेयाकार नहीं होता। झलकता है, तन्मय नहीं होता। यदि दर्पण में तेरा चेहरा तन्मय हो गया, तो किसी बालक ने दर्पण में पत्थर मारा, तो तेरा चेहरा फूट जायेगा। परन्तु फूटता है क्या? दर्पण में प्रतिबिम्ब झलका ही था, बिम्ब गया नहीं था । ज्ञान में ज्ञेय झलकता ही है, ज्ञान में ज्ञेय होता नहीं है । ज्ञेय में जब रागदशा होती है तो, हे ज्ञानी ! वह रागरूप ज्ञेय का जो मोह सम्बन्ध है । वह तेरे अन्दर अशुभोपयोग का जनक होता है, द्वेषरूप जो भाव है, वह तेरे ज्ञान में उपयोग के लिए अशुभ होता है। अरिहंत की प्रतिमा एक के लिए शुभरूप हो रही है, दूसरे के लिए अशुभ रूप हो रही है। एक माँ अपने बेटे के लिए शुभरूप भी होती है, वही दूसरे के लिए अशुभ रूप भी होती है । एक महात्मा होता तो उसमें उसे भगवान दिखता, दूसरे को महात्मा में भी बहिरात्मा दृष्टिगोचर होता है। "किं सुन्दर किं असुन्दरम्।" ज्ञेय, ज्ञेय है; ज्ञान-ज्ञान है। ज्ञेय व ज्ञान के बीच में है राग-द्वेष और मोह । वह राग-द्वेष मोह जैसे है, वैसे ही ज्ञान-ज्ञेय के रूप में ज्ञान दर्शन भी है। वही आत्मा राग-द्वेष को विसर्जित करके ज्ञान-चारित्र पर चली जाये तो अहो ज्ञानी ! उसे माँ भी नहीं दिखेगी, पत्नि भी नहीं दिखेगी, महात्मा भी नहीं दिखेगा । यहाँ तक कि भगवान भी नहीं दिखेगा । उसे तो मात्र निज शुद्ध भगवान् आत्मा दिखेगी। जब रत्नत्रय में लीन होगा और ज्ञान को भी अलग करके चलेगा, तब न माँ व महात्मा, न परमात्मा । मात्र क्या होगा? मैं ही मैं।
परम वीतरागी तपोधन आत्मज्ञाननिष्ठ हो जाते हैं, तो अन्दर जो नाना कर्म काम कर रहे हैं, आ रहे हैं, जा रहे हैं, फिर भी ज्ञाता दृष्टा निज को जब ज्ञेय बनाता है, तो पर-ज्ञेयों से परे हो जाता है । रत्नत्रय में तन्मय का अर्थ । ज्ञान को ही ज्ञेय बना लेना, समझने के लिए, कहने के लिए, बतलाने के लिए। परन्तु
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ॥ १५ ॥ । तात्पर्यवृति ॥ रयणत्तयं ण बट्टइ, अप्पाणं मुयत्तु अण्णदवियम्हि ।
तम्हा तत्तियमइओ, होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा ॥४०॥ ॥द्रव्यसंग्रह ॥ रत्नत्रय कहाँ है ? आत्मा को छोड़कर रत्नत्रय कहीं होता नहीं है। इसलिए आत्मा ही मोक्षमार्ग है, आत्मा ही रत्नत्रय है। रत्नत्रय को अभेद रत्नत्रय भी तो कहा है आगम में। अभेद रत्नत्रय ही शुद्ध ज्ञानानुभूति है। आज मालूम, आप लोग कौन-सा निर्णय कर रहे हो? समयसार का सम्यग्दृष्टि, समयसार का सम्यग्ज्ञानी और समयसार का सम्यग्चारित्रवान। ये तीनों एक है। यह आचार्य ब्रह्मदेव सूरि की भाषा में बोल रहे हैं। इनमें से एक भी होगा, तो तीनों नियम से होंगे। भूल कहाँ हो रही है ? ये सभी विषय चौथे गुणस्थान में लगा रहे हैं, जबकि उनको यह कहना चाहिए, कि अविरत सम्यग्दृष्टि जीव की जो भूमिका है, वह विषय वहाँ लगा देना। लेकिन जब हम समयसार का निश्चय चारित्र का व्याख्यान करेंगे, तो अहो ज्ञानी ! व्यवहार रत्नत्रय धारण कर समग्र हुए बिना निश्चय रत्नत्रय नहीं होता।
मैं अभी चतुर्थ गुणस्थान की बात नहीं कर रहा, क्योंकि मुझे तो अभी उस परम विषय का स्पष्टीकरण करना है । पर इतना अवश्य समझना, सम्यक्त्वाचरण चारित्र से युक्त है वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा। इसका निषेध मत कर देना । क्योंकि मिथ्यात्व का विगलन हुआ है । और सम्यक्त्वाचरण चारित्र सम्बन्धी
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