Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

View full book text
Previous | Next

Page 325
________________ स्वरूप का विसंत समय देशना - हिन्दी ३०६ कर मत रहना। रिश्ते के रिश्ते तो मानना, पर स्वभाव का रिश्ता नहीं मानता। वस्तुस्वरूप का विपर्यास मत करना । चारों अनुयोग का अध्ययन करना । यदि आप मुमुक्षु हैं तो उत्तमा स्वात्म चिंता स्यान, मोह चिंता च मध्यमा । अधमा काम चिंता स्यात्, परचिंताऽधमाधमा ॥४|| परमानंद स्तोत्र ॥ अहो मुमुक्षु ! पक्ष का, पंथ का विकल्प अपने मन से हटा दो, फिर देखो कितना आनंद है आपके अन्दर । एक बात समझ में नहीं आती, आप शांतिपाठ में प्रतिदिन बोलते हो - सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र सामान्य तपोधनानां । यह भगवान् को सुनाने के लिए बोलते हो, कि अपने लिए बोलते हो? अपने लिए बोलते हो, तो भूल कैसे जाते हो, कि सम्पूर्ण तपस्वियों के लिए, राजा प्रजा के लिए है। तीर्थंकर के पादमूल में, शांति की भावना भा रहे हो, और बाहर लड़ रहे हो। यह तो मायाचारी है। तत्त्वज्ञान, तत्त्वबोध, तत्त्वानुभूति इन पर ध्यान दो। यह समयसार तत्त्वानुभूति का ग्रन्थ है। निर्मल तत्त्व कोई परम उपादेयभूत है, तो वह मेरी आत्मा। नैरात्मवादी और आत्मवादी, हम दोनों को नहीं मानते। आत्मवादी की बात मत करना, आत्मस्वभावी की बात करना, पृथक्त्वस्वरूपोऽहं । जब ज्यादा बादाम खा ले, तो पेट में क्या होता है ? बादी हो जाती है, गरिष्ठ का अजीर्ण हो जाता है। ऐसे ही जिन्हें समयसार की बादी चढ़ गई, वे वाद तो कर पायेंगे, पर स्वानुभूति की अनुभूति नहीं ले पायेंगे। ये वात का ग्रन्थ नहीं है। वात का रोगी बड़बड़ाता है, और ईर्ष्या करता है, और उसके पैर कितने भी घिस ले, तब भी उसके पैर काले मिलेंगे। जिसके चरण साफ होंगे, उसका आचरण भी साफ होगा। तीर्थंकर के क्षायिक अभयदान होता है । जगत के जीवों को निर्भय करा देते हैं। जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णम विसेसं । अपदेससुत्तमज्झं पस्सदि जिसणसासणं सव्वं ॥१५॥ समयसार जो देखता है ! किसको? आत्मा को । किसकी आत्मा को ? स्वयं की आत्मा को । कैसे? अबध्य अविशेष है। ऐसे सूत्र के मध्य में अविशेष आदि(िविशेषताओं से रहित) सम्पूर्ण जिनशासन को देखता है। जिसने तिल में तेल देख लिया है, अब देखने को बचा ही क्या है? जिसने दूध में घी देख लिया है अब देखने को बचा ही क्या है ? जिसने सम्पूर्ण द्वादशांग में भगवती आत्मा को देख लिया है, उसे देखने को बचा ही क्या है ? एक माँ हाथ में नोटों की गड्डी लेकर जा रही थी, तो रास्ते में किसी ने पूछ लिया कहाँ जा रही हो? वह कहती है, उनके यहाँ जा रही हूँ, आप हमें उनका घर बता दो।' घर बता दिया । वह चली गई। वह घर में जाकर पूछ रही कि, बेटे की शादी होकर आई थी, वह बहू कहाँ है ? वह ढूँढ रही थी भीड़ में । जैसे ही बहू दिख गई, वह किसी को नहीं देखती, उस बहू को पैसे देती है। वह मकान, साड़ी को देखने नहीं गई थी। मात्र चेहरा देखने के लिए पैसे देने गई थी। जितने प्रपंच हैं धर्म के, वे सब आत्मवधू को देखने तक हैं। जिस दिन आत्मवधू का चेहरा दिख जाये, फिर सब कुछ समाप्त । तप-साधना, ध्यान आदि तभी तक हैं, जब तक आत्मवधू नहीं मिली। जिस दिन मिल जायेगी, तब तक साधना करनी होगी। जब तक रत्नत्रय धर्म का फल निर्वाण नहीं मिल जाता, तब तक सम्पूर्ण व्यवहारों को देखना होता है । जब मिल जाता है, फिर हम नहीं जाते हैं। समझो यही निश्चय-व्यवहार है। जिसने आत्मा को पाँच रूप में देख लिया कि आत्मा अबद्ध है, अस्पर्श है, अनन्य है, अविशेष है, असंयुक्त है। उसने सम्पूर्ण जिनशासन को देख लिया है। बद्ध यानी बंधा हुआ, संयुक्त यानी मिला हुआ। मैं किसी से बंधा नहीं हूँ, मैं किसी में मिला नहीं हूँ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344