Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 322
________________ समय देशना - हिन्दी ३०६ आत्मा है, आत्मा ही ज्ञान है। 'चेतना लक्षणो जीवा, तत्र ज्ञानदर्शन, यह कौन बोल रहा है ? 'सर्वार्थ सिद्धि, आचार्य पूज्यपाद स्वामी । ज्ञान किसमें था ? आत्मा में था। आत्मा कैसी थी? ज्ञानी थी। जो-जो आपने जाना है, किसमें जाना ? आत्मा में। परद्रव्य को जानोगे तो आत्मा से जानोगे, निज द्रव्य को जानोगे तो भी आत्मा से जानोगे । स्वसंवेदन नहीं मानोगे, तो आप नैयायिक हो जाओगे, क्योकि वे स्वसंवेदन को ही नहीं मानते । स्वसंवेदन यानि शुद्धानुभूति, स्वसंवेदन, अविरत सम्यग्दृष्टि जीव को नहीं होता, सप्तम गुणस्थानवर्ती को होता है, और सम्यक्त्वानुभूति स्वसंवेदन सम्यग्दृष्टि को होता है और मिथ्यात्व स्वसंवेदन मिथ्यादृष्टि को होता है। ऐसा कथन करो, अन्यथा आत्मतत्त्व का विनाश हो जायेगा। जगत को जाने, और जाननहार को न जाने, यह कितनी बड़ी बात है ? जाननहारे को जानो, शेष सबको जानना बन्द करो। 'होता स्वयं जगत परिणाम' यह सूत्र कब कहना? जब अन्तस् में बैठ जाना। जगत में सुख-दुःख घटित हो रहे हैं, होने दो। होता स्वयं जगत परिणाम । मैं परिवार का कर्ता नहीं, परिवार मेरा कर्ता नहीं, यह ध्रुव सत्य है । आप बुरा मत मानना, तो कहता हूँ । जनक तेरा कर्त्ता नहीं, जननी तेरी कर्त्ता नहीं, दोनों अपनी वासनाओं व इच्छाओं की पूर्ति के कर्ता हैं । मैंने मनुष्य आयु का बन्ध न किया होता, तो जन्म कैसे लेता? मेरी मनुष्य आयु का कर्ता मैं हूँ। वह मैंने आज बन्ध नहीं किया, इन जनक-जननी को तो मैं जानता ही नहीं था, तब बन्ध कर चुका था। हे जनक जननी ! ये तो हमारे व्यवहारिक विनय का विषय है, कि हम आपको अपना सर्वस्व मानते हैं। परमार्थ दृष्टि से देखोगे, तो आप अपनी वासनाओं के ही कर्ता हो, मेरे कर्त्ता नहीं हो । आपके तन में रज-वीर्य का ही प्रादुर्भाव हुआ, आत्मा का प्रादुर्भाव नहीं हुआ है। घबड़ा गये ? ध्रुव सत्य है, मैं आपके कर्तृत्त्वभाव से उत्पन्न नहीं हुआ, न मैं आपके कर्तृत्वभाव से मरण को प्राप्त होऊँगा। अगली पर्याय जो मुझे मिलने वाली है, वह आपकी कर्तृत्व से नहीं मिलेगी, परिणति के कर्तृत्व से मिलेगी। यः परिणामी सः कर्त्ता य परिणति सः क्रिया। जो परिणामी है वह कर्ता है; जो परिणति है वह क्रिया है । जो परिणाम हैं वे मेरे कर्म हैं, क्यों मेरे पीछे रो रहे हो ? स्वानुभूति सोपाधिक कर्म नहीं है, स्वानुभूति निरुपाधिक है । पर क्या हुआ कि व्यवहार पक्ष ने मुख्यता दे दी सातवें गुणस्थान को, और निश्चय पक्ष ने मुख्यता दे दी चौथे गुणस्थान को । दोनों अज्ञानी हैं। स्वानुभूति जीवद्रव्य का गुण है। वह अनुभूति, जो जीव जिस अवस्था में होगा, तद्रूप अनुभव करेगा। यह मैं न्याय की भाषा में बोल रहा हूँ, जब हम अध्यात्म की भाषा में कथन करें, तो वहाँ कहना, अशुभानुभूति, शुभानुभूति, शुद्धानुभूति । तीन भेद करो। अशुभ की अनुभूति होती हैं, कि नहीं? शुभ की अनुभूति होती हैं, नहीं। शुभ की अनुभूति नहीं होती, तो आप घर में रह कैसे रहे है? इन्द्रिय सुखों की अनुभूति भी अनुभूति है, और उसमें ही आपने जीवन निकाला है। बुद्धिपूर्वक अनुभूति ले रहा है। निज के सोचने से ली है। यह राग आग दहे सदा, तातै समामृत सेइये । चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निज पद वेइये॥छहढाला॥ साधु को आप आहार देते हैं। साधु ने कहा भी होगा, कि अपना कल्याण करो। पर आपने मानी क्यों नहीं? क्योंकि आप अपने मन की मानते हो। श्रद्धा तो करते हो, परन्तु मानते नहीं हो, क्योंकि श्रद्धान नहीं करोगे, तो सम्यग्दृष्टि नहीं होंगे। जानते है, श्रद्धान करते हैं, इसलिए अविरत सम्यग्दृष्टि हैं। मानते नहीं है का मतलब, चर्या में नहीं लाते। जिस दिन चर्या में लायेंगे, उस दिन 'अविरत' शब्द समाप्त हो जायेगा। - भरत चक्र चलाते हुए भी सम्यग्दृष्टि था, क्योंकि 'अरहंत ने जो कहा वह सत्य है। यह श्रद्धान अन्दर For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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