Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 309
________________ समय देशना - हिन्दी २६३ यह स्वरूप तो पर्यायभूत है। ध्यान में उस स्वरूप को झलकाओ, जो अभी तेरे ज्ञान में आया नहीं है । परमात्मा - पर्याय को देखो। इस मुनिलिंग का ध्यान आपको करना चाहिए है, पर मुनिराज को मुनिपर्याय का ध्यान नहीं करना है, मुनिपर्याय में होनेवाले परमात्मा का ध्यान करना है। अव्रती व्रतमादाय व्रत ज्ञानपरायणः । परात्मज्ञानसपन्नः स्वयमेव परो भवेत ॥८६ समाधिशतक || 'समयसार ग्रन्थ के अध्ययन के पूर्व जितने लघु ग्रन्थ है, सब कंठस्थ होना चाहिए। समाधि शतक आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिख रहे हैं- हे अव्रतियो! ज्ञान की बात नहीं करना चाहते, पहले आप व्रती बनो, व्रती बन गये, फिर क्या करोगे ? फिर नमक, मिर्च, खटाई की बात नहीं करोगे । 'व्रती ज्ञान परायणा' । व्रतियो! तुम अपना जीवन ज्ञान में लगाओ । व्रतियों का काम 'साधु कार्य तपः श्रुतः'। जब भी आप मुनि बनो, आर्यिका बनो, तो ध्यान रखना, ईंट - चूने में जीवन बर्बाद नहीं करना । साधु के दो ही कार्य हैं तप और श्रुत। पंच पापों से दूर रहना । प्रश्न- भगवान् अपनी पर्यायों का किसी के पूछने पर तो वर्णन कर देते हैं क्या ? उत्तर- भगवान् जो कथन कर रहे हैं, बोल रहे हैं, वे राग से बोल रहे, कि ज्ञेय भाव से बोल रहे हैं ? ये पंचमकाल के श्रावक भगवान् को भी नहीं छोड़ते। कहते, पुत्र भरतेश चक्रवर्ती रात को बारह बजे आये, तो बोलने लगे और हम भीड़ की भीड़ आये, तो नहीं बोले, इन्हें तो अपने लड़के में राग आ गया है । अरे ज्ञानियो ! यह तुम्हारी राग-द्वेष दृष्टि बोल रही है। कहना चाहिए, भगवान् नहीं बोलते, पुण्यात्मा के पुण्य से वाणी खिर गई है, वीतरागी तो बोलते ही नहीं हैं । जैसे ही हम लोगों के नाम के आगे विशेषण लग गया तो राग-द्वेष खड़ा हो गया। स्वभाव सामान्य से ही मिलेगा, विशेष से नहीं मिलेगा । ' अस्तिस्वभाव' । मेरी यह मुनि - मुद्रा त्रैकालिक नहीं है, परन्तु मेरी आत्मा त्रैकालिक है। इसलिए हमें मुनि पर्याय का ध्यान नहीं करना है, मुनि पर्याय में विराजे भगवान् -आत्मा का ध्यान करना है । अब हम मुनि पर्याय में मुनि का ध्यान करेंगे, तो मुझे मुनि-ही-मुनि दिखता रहेगा, हम मौन नहीं हो पायेंगे, और हम मुनि पर्याय में बैठकर सभी पर्यायों से मौन ले लेंगे, तो नरक का नारकी भी भगवान्-आत्मा दिखेगा सादृश्य अस्तित्व गुण से । सूत्र चौदहवीं गाथा की जो टीका अमृतचन्द्र स्वामी ने की है, उसमें बड़ा ही सुन्दर चिन्तन किया है, प्रदान किये हैं । स्वभाव की अपेक्षा से कंचन के विशेषण अभूतार्थ हैं। कुण्डल, नूपुर, हार, मुकुट ये नाना रूप दिख रहे हैं। नानारूप नाना भावों को उत्पन्न कर रहे हैं, सोना है तटस्थ भाव | पर्याय में पाप करते दिखते हैं, परिणति में भी पाप बैठा है, वचनों में भगवान् - आत्मा है, इसीलिए तो विसंवाद है । जितना वचनों में चल रहा है, उतना परिणति में आना चाहिए, और जो परिणति में आ जाए, तो जीवन की गति वैसी चलना चाहिए। उतने ही व्रत करना, जितने आप व्रती हो और उतने ही अपने व्रत का व्याख्यान करना, जितने का तुम पालन कर रहे हो । लम्बी-चौड़ी नहीं कहना । लम्बी-चौड़ी कहने वाला जितना अश्रद्धा का पात्र बनता है, उतना शान्त रहने वाला नहीं बनता है । घर छोड़ना नहीं चाहते और घर का काम करोगे नहीं, तो संक्लेषता बढ़ती है, घर में क्लेश होता है। भेदभाव भूतार्थ है, अभेदभाव अभूतार्थ है। ज्ञान दर्शन आदि भूतार्थ हैं, कषाय भाव से युक्त आत्मा अभूतार्थ है । पानी गर्म है, अँगुली डाल रहे हो तो जल भी रही है, फिर भी पानी गर्म नहीं है। कुछ कहना है ? गर्म For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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