Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

View full book text
Previous | Next

Page 318
________________ समय देशना - हिन्दी ३०२ यह कहना छोड़ दो, कि पर का परिणमन है, तेरा नहीं है। तेरे परिणमन के बिना पर में परिणमन हो नहीं रहा है। ये तन की पर्याय का परिणमन भी तेरे निमित्त से हो रहा है। बारहवें कलश में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी यही कह रहे हैं। जो पर परिणमन चल रहा है, इस पर परिणमन को विवेकपूर्वक समझकर, जो निष्कलंक भगवान्-आत्मा है उस पर दृष्टिपात करो । भूतं भान्तमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बन्धं सुधीर्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते धुवं, नित्यं कर्मकलङ्क पङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥ १२॥अ.अ.क.।। आटे में रोटियाँ खोजना जानते हो । आटे में ध्यान से देखना, रोटी दिखती नहीं है, फिर भी आटे सें रोटी बनाना जानते हो कि नहीं ? जैसे आटे में रोटियाँ निकाल लेते हो, ऐसे ही इस भगवती आत्मा को निकाल लो; तेरे अन्दर भगवान् - आत्मा है । I द्रव्यदृष्टि का ज्ञान एक किसान को भी होता है। वह भी बीज में अंकुर निकालना जानता है। पर हम कैसे अज्ञानी हैं, जो कि इस आत्मा के अन्दर विराजे प्रभु को निकालना नहीं जानते हैं ? आत्म-विज्ञान जानकर भगवान्-आत्मा निकालना सीखो। यह ग्रन्थ आत्मविज्ञान समयसार है । यह समयसार इतना सरल ग्रन्थ है, जिससे भगवान् - आत्मा बना जाता है। जो शंखनाद कर रहा है, वह कोई और नहीं कर रहा । देश-देश के युद्ध होते हैं । सेनापति का भाषण वीररस में होता है। शंखनाद होता है। तो भुजाएँ योद्धाओं की फड़कना प्रारंभ हो जाती हैं । भाषण में शक्ति दी जाती है, वीररस टपकता है । उसी प्रकार बिना उपदेश सुने वैराग्य नहीं होता है । शक्ति तो योद्धाओं में होती है, पर वीररस का भाषण आपको जोश दे रहा है । यह समयसार भगवान्-आत्मा आप सभी में विराजती है, ऐसा जोश देने वाला ग्रन्थ है । जब-जब आप समयसार सुनते हो, आप कितने भी कषाय में बैठे हो, पर यहाँ शान्त बैठे रहते हो। सूचना दे दो आत्मा को कि मैं भी भगवान्-आत्मा हूँ । यह बारहवाँ कलश कह रहा है । भूत में, भविष्य में, वर्तमान में तीनों कालों में कोई सुधी ज्ञानी पुरुष क्या विचारता है ? यह कि मैं बन्ध से निर्बन्ध कैसे होऊँ? कोई तुम्हारा नहीं होगा, मैं ही होऊँगा। हाथी दलदल में फँस जाये, तो हाथी को निकालोगे किससे ? हाथी को रस्सी से बाँधकर निकाला है। जिस प्रज्ञा से जिस बुद्धि से तुमने बन्ध किये हैं, उसी बुद्धि से बंध छुड़ाना पड़ेगा। जितने रोष-तोष में पाप किये हैं, उतने ही रोष तोष से पाप को छुड़ाना पड़ेगा। जितने पैर रखकर आप घर से यहाँ आये हो, उतने ही कदमों से वापस जाना पड़ेगा। जिन भावों से पाप कमाये हैं, उन भावों से हम पापों को लौटा भी सकते हैं। यही जैनदर्शन की महिमा है । किसी को हीन नहीं देखना चाहता। जितने चल गये न, उतने ही वापिस लौट जाओ । परिणाम आते हैं; जाते हैं, ठहरते नहीं हैं। अशुभ परिणाम आ जाये, तो गिर मत जाना। अशुभ में आ जाएँ, तुरंत वापिस कर दो, यह है गुणस्थान । आना-जाना, यह गुणस्थान का काम है । देखो। व्रत-संयम मत छोड़ देना । समयसार को सुनना चाहिए । ये कर्मकलंक हमारे निज भवन में आकर बैठ गये हैं । इनको हटाओ, जबरदस्ती हटाओ । जैसे आपने अपना मकान किराये पर दिया, फिर खाली कराना पड़े, तो क्या करोगे ? उससे खाली कराते हो, नहीं करे, तो हठात् हटाते हो। उसी प्रकार कर्म को हटा दो, निकाल दो, आत्मा तो आत्मा के द्वारा ही अनुभवगम्य है । मिश्री का मीठापन तो मिश्री से ही है। मिश्री में मीठापन कहाँ से आया ? जलेबी रस से मीठी होती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344