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समय देशना - हिन्दी
तत्त्वज्ञान प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।
क्रमभावि च यज्ज्ञान स्याद्वादनय संस्कृतम् ॥१०१॥ आप्त मीमांसा
सम्पूर्ण तत्त्वों को यदि कोई प्रकाशित करनेवाला है, तो वह है सर्वज्ञ का अक्रमभावी ज्ञान और आपका ज्ञान क्रमभावी / क्रम-क्रम से है । क्रम के विषय को अक्रम में लगाओगे, तो कहाँ जाओगे? फिर आप केवली के ज्ञान से बात करना चाहते हो, तो तुम्हारे पास एक ही ज्ञान बचेगा, मति - श्रुत / मति - श्रुत ज्ञान के विषय को मति श्रुत से ही जानोगे, केवली के विषय को मतिश्रुत से नहीं जानोगे, विश्वास रखना और केवली का विषय तेरे ज्ञान का विषय बन गया, तो मुझे अशुद्ध गुण में शुद्ध गुण कहना पड़ जायेगा। क्या करूँ ? हठाग्रहता में, विद्वता भी काम नहीं आती । श्रुतकेवली की अगली पर्याय श्रुतकेवली पर निर्भर है। श्रुत मात्र से लोकान्तिक देव नहीं बनते, श्रुत के साथ चारित्र चाहिए ।
॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ॥
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जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुत्रं अणण्णयं णियंद | अविसे समसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि ||१४||
आचार्य-भगवान् आत्मा के भूतार्थ स्वरूप का व्याख्यान कर रहे हैं। कोई भी द्रव्य न भूतार्थ ही है, अभूतार्थ ही है । यही भूतार्थ है । भूतार्थ भी है । अभूतार्थ भी है। यही तो भूतार्थ है । भेदात्मक भी है, अभेदात्मक भी है । नित्य भी है, अनित्य भी है। एकरूप भी है, अनेकरूप भी है, नानापना, एकत्वपना यह द्रव्य का स्वभाव है । यहाँ पर अनेक प्रकार से चौदहवीं गाथा को आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी ने समझाया है । एक अलौकिक कलश प्रदान कर रहे हैं। इस कलश के माध्यम से आत्मा के उस शुद्धस्वरूप का कथन किया जा रहा है, जो कि ध्रुव ज्ञायकभाव का, ध्रुव चेतनत्व भाव का, शुद्ध चिद्स्वरूप स्वभाव का, और जब इन स्वभावों पर लक्ष्य जाये, उस समय आप व्यवहार के पक्ष को गौण करके, निश्चय के पक्ष को ही समझेंगे, तो, ज्ञानी ! समझ में आयेगा । और यहाँ जब निश्चय का कथन चलेगा, तब यदि आप व्यवहार पक्ष लगायेंगें, तो विकल्प हो जायेंगे अत: जहाँ व्यवहार का कथन हो, उसे परिपूर्ण रूप से व्यवहार में ही कहना, उसे निश्चय की भाषा में नहीं बोलना; पर लक्ष्य निश्चय का ही रखना । यह आगम को समझने की शैली है । निश्चय की भाषा को व्यवहार में प्ररूपित करेंगे, तो न निश्चय समझ में आयेगा, न व्यवहार समझ में आयेगा, और व्यवहार की भाषा को निश्चय में कहोगे तो न व्यवहार समझ में आयेगा, न निश्चय; विसंवाद ही होगा, जबकि आगम अविसंवादी है । ये तत्त्व की भूल नहीं है । तत्त्व को न समझने वालों की भूल है, तत्त्व तो आगम में जिस नय का है उसी नय से प्ररूपित है। जिस नय से तत्व की प्ररूपणा है, आगम में तो वैसी ही प्ररूपणा है। समझाने वाला क्या चाहता है, वह वक्ता का अभिप्राय है, वक्ता अपने अभिप्रायः को आगम न बनायें, वरन् आगम को अपने अभिप्राय में लायें, तो आपका मोक्षमार्ग प्रशस्त होगा, और जिनको भी आप समझा रहे हैं उनका भी मार्ग प्रशस्त होगा। इसलिए इस कलश को देखें -
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न हि विदधति बद्धस्पृष्ट भावादयोऽमी स्फुटमुपरि तरन्तोऽपेत्य यत्र प्रतिष्ठाम् ।
अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्ताज् जगदपगतमोहीभूय सम्कस्व भावम् ॥११॥ अ.अ.क. ज्ञानियो ! कलश का गहनतम अर्थ समझो। कलश का अर्थ करने के पहले इसकी भूमिका बता दूँ । यहाँ तो अन्योन्य भाव से आत्मा में कर्मो का सम्बन्ध नहीं कहा। यद्यपि सिद्धान्त की अपेक्षा से आत्म प्रदेश
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