Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 305
________________ समय देशना - हिन्दी २८६ पर्याय से शून्य हो । जो स्वभाव व्यञ्जन-पर्याय शुद्ध पर्याय है । एक रस,एक गंध, एक वर्ण, दो स्पर्श यह पुद्गल की स्वभाव गुण पर्याय है। विभाव व्यञ्जन पर्याय रस रसान्तर, गन्ध गंधान्तर यह पुद्गल द्रव्य की अशुद्ध गुण व्यञ्जन-पर्याय हैं । स्कन्ध जो है, पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यञ्जन पर्याय है। और परमाणु जो है, पुद्गल द्रव्य की स्वभाव द्रव्य-व्यञ्जन-पर्याय है । जीव द्रव्य में नर-नरकादि विभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है | शुद्ध परमेश्वर सिद्धात्मा स्वभाव द्रव्य -व्यञ्जन पर्याय है और केवलज्ञान, केवल दर्शन स्वभाव गुण व्यञ्जन पर्याय है। मति, श्रुत आदि ये जीवद्रव्य की विभाव गुण व्यञ्जन पर्यायें हैं। हे मुमुक्षु ! अर्थ पर्याय आपके पकड़ने की नहीं है। अर्थ पर्याय को आगम के प्रमाण से ही श्रद्धान करो । षटगुण-हानि वृद्धिरूप जो परिणमन है, वही अर्थ पर्याय है। जो किसी छद्मस्थ के ज्ञान का विषय नहीं बनती है। शुद्ध में शुद्ध षट्गुण हानि वृद्धि होगी। अर्थ पर्याय, अगुरूलघु गुण का परिणमन है। इसे ग्रन्थ कर्ता भी स्पष्ट नहीं कर पाये, तो आप कह मत देना कि मैं समझाता हूँ, अर्थ पर्याय के लिए अर्थकर्ता क्या लिखते है सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभि व हन्यते । आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥५॥ आलाप पद्धति । ये जिनेन्द्र के तत्त्व अति सूक्ष्म हैं, इनको किसी के हेतुओं से खण्डित नहीं किया जा सकता, इसलिए जिनेन्द्र की आज्ञा को ग्रहण कर लो, अर्थ पर्याय को तो आप तभी जान पायेंगे, जब आप सर्वज्ञ बनकर अनुभव करेंगे। आप आलाप पद्धति को पढ़ लो । द्रव्य पुण्य कम हो पाये, तो भाव पुण्य में कमी मत करो। उल्टा हो रहा है, द्रव्यपुण्य के लिए समय नहीं दे पा रहे, भावपुण्य भी नहीं कर पा रहे, जबकि भावपुण्य के लिए समय-ही समय है। यही कारण है कि दिगम्बर मुनियों का एकाएक पुण्य क्यों बढ़ता है। संक्लेशता से पापास्रव होता है । मूल पकड़िये संक्लेशता । साधु बनकर कितने सारे टेंशन समाप्त हो गये, खाना बनाना, मिलना, जुलना कितने सारे टेंशन है । पापास्रव अधिक होता है । धार्मिक नाटक था, पर धर्म नहीं था। उसमें भी पापाश्रव । इस वेश में शुभ क्रियाएँ कर रहे है, तो पुण्य-ही-पुण्य बढ़ रहा है। वहाँ संक्लेशता कम ही होती है। साता भी असाता, असाता भी साता हो जाती है। इसलिए संभलकर जियो । पुण्य पर न इठलाओ, न पाप पर रोओ, बस, पाप मत करो। यह चरणानुयोग से मिश्रित द्रव्यानुयोग का कथन चल रहा है। शद्ध अभी आप सन ही कहाँ पा रहे है। निश्चय से अबद्ध, अविशेष, अस्पष्ट, नियत, असंयुक्त ये पाँच बातों से युक्त आत्मा की जो अनुभूति है, वही शुद्ध नय है। वह जो अनुभूति है, वही आत्मा है। जो वेदक भाव है, वह क्रिया है । वेदकभावी कर्ता है, वेदना कर्म है। शुद्ध तत्त्वदृष्टि से कथन चल रहा है, इसलिए कठिन लग रहा है। सेब फल है, उसमें छिलका है, मैं खाने वाला हूँ। सेब फल कितना है ? जितना स्वाद है, उतना ही सेब है। जिसमें इच्छा की पूर्ति हो रही है, जो वेदन कर रहा है, उतना ही तेरे लिए उपादेयभूत दिख रहा है। जो आत्मा की अनुभूति कही है, कैसी है ? स्पष्ट है, अभूतार्थ है । कैसे अभूतार्थ है ? जैसे विश्व में कमलपत्र पानी में निमग्न है, ऐसा अनुभव करने पर यह भूतार्थ है। जब आप पर्यायदृष्टि से निहारेंगे, तो पानी में कमलपत्र है, कमलपत्र पर पानी है, यह सत्य है, लेकिन एकांत नहीं है। जब कमल के पत्र पर पानी की बूंद है, यह निमित्त भाव से भूतार्थ है । कमल पत्र पानी नहीं है, पत्र में पानी नहीं है, पत्र पर पानी है। इसलिए भूतार्थ है। पत्र पानी नहीं, पत्र में पानी नहीं इसलिए अभूतार्थ है। । भगवान् महावीर स्वामी की जय ।। qa www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

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