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समय देशना - हिन्दी
२७८ तो बड़ा आनन्द मुझे आयेगा । फिर मैं भी एक देश सिद्ध भगवान की अनुभूति लूँगा। परन्तु ईश्वरवादी हो जाऊँगा। मिथ्यात्व में चला जाऊँगा, इसलिए, हे परमेश्वर ! आपका अंश मात्र भी मेरे अन्दर नहीं है। मित्यादृष्टि राग की तीव्रता में ऐसा कहता है कि तन दो है; पर आत्मा एक है।
राग की तीव्रता देखो कि पति कहता है कि मेरी पत्नी का शरीर मात्र ही भिन्न दिखता है, परन्तु हम दोनों की आत्मा तो एक है और शिष्य कहे कि मेरे गुरु की और मेरी आत्मा तो एक है। घोर मिथ्यादृष्टि । हे ज्ञानियों! जीव-जीव द्रव्य में अत्यन्ताभाव है कि नहीं? स्नेह की भाषा भी प्रमाद है। स्नेह अनंतानुबंधी रूप हो जाये तो मिथ्यात्व है। ये पन्द्रह प्रमाद छठवें गुणस्थान तक चलते हैं। तो फिर वहाँ कषाय को भी साथ लेना पड़ेगा। यदि स्नेह संज्वलन के साथ है, तो यथाख्यात का घातक है। यदि स्नेह प्रत्याख्यान के साथ है, तो किसका घात करेगा ? सकल चारित्र का । स्नेह अप्रत्याख्यान के साथ है, तो देशचारित्र का घात करेगा
और यह स्नेह अनंतानुबन्धी के साथ है, तो सम्यक्त्व का घात करेगा। इसलिए ध्यान दो यह मत कहना कि मैं स्नेह में बोल रहा हूँ, पर आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी कहेंगे -
विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणयो य ।
चदु चदु पणमेगेगं होंतिपमादा हुपण्णरस।। गो.जी.॥३४॥ चार विकथाएँ, चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ के विषय निन्द्रा, स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं । ये प्रमाद हो जायें, तो प्रायश्चित ले लेना, लेकिन प्रायश्चित लेने में प्रमाद नहीं करना । आ रहा है जो स्नेह, इसे दोष मानना, गुण नहीं।
हे ज्ञानी ! बहुत गम्भीरता में करणानुयोग सोचो। सबको गौण कर दो, राग-द्वेष दो पकड़ो। फिर राग-द्वेष के भंग बनाइए, दो कषाय रागरूप, दो कषाय द्वेषरूप, क्रोध व मान द्वेष, रूप, माया व लोभ रागरूपा उस राग और द्वेष में अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, सञ्जवलन को घटित कीजिए। इसलिए जो आपका राग चल रहा है, स्नेह है, वह भी राग है । वह स्नेह आपका छ: महीना क्या हजारों वर्ष तक चले, पर किस कषाय के साथ चल रहा है, इतना ध्यान दो। श्रीराम-लक्ष्मण के शव को लिए घूम रहे थे। वे द्वेष से घूम रहे थे कि राग से ? राग से घूम रहे थे, कौन-सी कषाय थी? अप्रत्याख्यान जैसे ही छ: महीने हुए, संस्कार किये । आजकल के लोगों ने क्या मान रखा है, कि क्रोध दिख जाये, बस वो कषायी है और कितना लोभी है, रागी है, मानी है, मायाचारी कर रहा है, उसे नहीं देखते। बाहर स्थूल दिखता है, सूक्ष्म नहीं दिखता है। मेरा तो सिद्धान्त है, कि कोई किसी की प्रशंसा करे, पूछ लेना कि खाता क्या है ।यदि अभक्ष्य खाता है तो, उसकी प्रशंसा नहीं करना । कोई किसी की प्रशंसा करे, तो पूछना घर में स्त्री है कि नहीं। यदि स्त्री है, तो मेरी श्रद्धा का पात्र नहीं है, पूरा चारित्र वहाँ टिका हुआ है। सम्पूर्ण परिग्रह, सम्पूर्ण कुशील, सम्पूर्ण मायाचारी, सम्पूर्ण छल छिद्र उसके पास मौजूद है, जो स्त्री का पालन कर रहा है। आपको बुरा तो नहीं लग रहा?
किसी ने शीलव्रत को धारण कर लिया, फिर तो आप सही मानोगे न? मात्र एक प्रवृत्ति के लिए अच्छे हो सकते है; शील के पालन के लिए। यदि आप स्त्री का पालन कर रहे हो, तो अन्य का पालन करोगे कि नहीं? जब तक गृहत्याग नहीं हुआ, तब-तक परिणामों में संयमाचरण रूप परिणाम नहीं होते, गृहकार्यों में अनेक प्रकार के कषाय भाव के निमित्त प्राप्त होते हैं । कषाय के काल में विवेकशून्य हो जाता है जीव ।
कषाय के आवेग में संयम तो शीघ्र ही गया, सम्यक्त्व भी चला जायेगा । आवेग को रोके रखना।
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