Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 295
________________ २७६ समय देशना हिन्दी व्यवस्थाएँ तो व्यवस्थाएँ हैं, चाहे देश की, राष्ट्र की, घर की हों । व्यवस्थाएँ आत्मा की अवस्था नहीं हैं । ध्यान दो, घर चलाते हैं आप लोग । विद्यार्थी जीवन प्रारम्भ हुआ नहीं, कि अनेकों की चिन्ताएँ शुरु । स्वतन्त्रता का ज्ञान नहीं है। जबकि एक गहरा निर्णय होना चाहिए था । अब पुनः कहता हूँ, एकमात्र निर्णय कर लो मैं स्वतन्त्र हूँ । भाग्य होगा, तो भगवान् भी बनते हैं । ये पुद्गल के टुकड़ों के पीछे अपनी स्वतन्त्रता क्यों खो रहा हूँ ? जबकि वह परम स्वतन्त्र पुद्गल, कभी आपको अपना कहता नहीं। पर, अहो रागी, मोही आत्माओं ! पुद्गल को अपना कह-कह कर, अपने परमात्मा को खो रहे हो। पुद्गल ने आज तक किसी भी जीव से नहीं कहा, कि मैं आपका हूँ, आप मेरे हैं ! धन्य हो राग तेरी महिमा । कितनों को अपना कहता है । जगत में सबसे बड़ा कोई भोगी है, तो जीव है। छहों द्रव्यों का उपभोग कर रहा है, जबकि पाँच द्रव्यों में उपयोग ही नहीं है। फिर तू ऐसा उपयोगमयी आत्मा है, कि छः द्रव्यों का उपभोक्ता है । स्वतन्त्र हो, कि नहीं ? स्वतंत्र हो फिर परतंत्र क्यों ? स्वतंत्रता तो स्वभाव है ही तेरा, परतन्त्रता कर्म - सापेक्ष है । मैं भी स्वतंत्र, तू भी स्वतंत्र, पुद्गल भी स्वतंत्र, छहों द्रव्य स्वतंत्र, फिर बन्ध किसमें है ? I विभाव-विभाव कहते-कहते कब तक संतुष्ट रहोगे ? क्या करूँ विभाव है ? विभाव है, कि विकार है ? क्यों ? विकार न हो तो विभाव कैसा ? विकार हटा लो, तो विभाव हट जायेगा। जब आप पाँच रुपये की सब्जी लेने जाते हो, तब मालूम चलता है, कि वस्तुस्वरूप कैसा है। सब्जी मंडी में इनका भेदविज्ञान मालूम चलता है, जब भाजी बेचनेवाले से मोलभाव चलता है । पाँच नहीं, तीन रुपये ले लो। बोले, क्यों ले लो ? आप ऐसा क्यों करते हो ? वह सब्जी वाला ठगता है। अरे ! आप तो चौबीस घण्टे ठग रहे हो, और क्या सोचते हो, इस भाजी वाले को मैं ठग कर आता हूँ। पर ध्रुव सत्य है कि ठगा कौन गया था? पाँच रुपये की सब्जी को तीन में लेकर आया है, ठगा कौन गया ? आप ही। अभी कुशलता का ज्ञान नहीं है। जिस दिन कुशलता का ज्ञान हो जायेगा, तब पता चलेगा कि कुशल कौन था । वह सब्जी वाला था, कि आप । पाँच की वस्तु को तीन मे `लाये हो।तो घर में क्या कहते हो बेटे से कि तू नहीं जायेगा, तू ठग कर आ जायेगा, मैं जाता हूँ। बेटा पाँच की सामग्री पाँच में लाता, वो ठग कर नहीं आता, तुम ही ठग कर आये हो, क्योंकि उसके साथ मायाचारी करके आये हो। कर्म का आश्रव किसे हुआ है ? आपको । जिस दिन समयसार की कुशलता समझ में आ जायेगी, उस दिन घर के काम बदल जायेंगे। इसलिए घर-घर में समसयार होना चाहिए। ग्रन्थ का पाठ मात्र नहीं, उसकी गहराईयाँ होना चाहिए। बताओ सही है, कि नहीं। अब आप स्वयं को समझाओ, कि जीवन भर में कितने लोगों के साथ मोलभाव किया, जबकि आपको मालूम था, कि वह वस्तु इतने की ही है। हिंसा भी की, कम दिये, चोरी भी की लोभ कषाय के वश होकर । निज स्वभाव से च्युत हुआ, परभाव में रमण किया, अब्रह्म भाव है, कुशील भी हो गया । परिग्रह संज्ञा के वश अज्ञप्राणी परद्रव्य में ममत्व कर परिग्रह नाम के पाप में लिप्त हुआ । हमने बंध को कुशलता से स्वीकार लिया। कुशलता का अर्थ तो पुण्य था । कुशलता, कुशल, कुशल कर्म, अकुशल कर्म । प्रमाद का नाम अकुशल है, और अप्रमत्तदशा का नाम कुशल है । आपने कुशल का अर्थ कर लिया, पर की वंचना | स्वयं की वंचना को कुशलता घोषित कर दिया लोक में। घर में बढ़िया चटनी के साथ सुबह की रोटी शाम को खा रहा था, और चिन्तन कर रहा था। मैं अबध्य हूँ, मैं अस्पर्श हूँ, मेरा इसमें कोई बन्ध नहीं है। राग में नहीं बंधा है, तो खा क्यों रहा है ? जगत का बड़ा विपरीत परिणमन है । स्वभाव को स्वभाव में निहारते हुए स्वभाव में जाना भी चाहिए, और स्वभाव को जानते हुए, विभाव की पुष्टि करना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org -

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